रविवार, 11 जून 2017

= माया का अंग =(१२/६१-३)


#daduji
卐 सत्यराम सा 卐 
*श्री दादू अनुभव वाणी* 
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥ 
*माया का अँग १२*
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आपै मारे आप को, आप आपको खाइ । 
आपै अपना काल है, दादू कह समझाइ ॥ ६१ ॥ 
हम ठीक समझाकर कहते हैं - यह जीव आप ही अपनी बुरी वासनाओं के द्वारा अपने को ताड़ित करता है । आप ही क्रोधादि आसुर गुणों के द्वारा अपने को दु:खी करता है और आप ही अपने अज्ञान द्वारा अपना काल बन रहा है । यदि साधन द्वारा आत्म - ज्ञान कर ले तो आप ही अपना मित्र हो सकता है । 
*करतूति=कर्म* 
मरबे की सब ऊपजे, जीबे की कुछ नाँहिं । 
जीबे की जाने नहीं, मरबे की मन माँहिं ॥ ६२ ॥ 
६२ - ६३ में कहते हैं - प्राय: जीव निज कर्म द्वारा पतन की ओर ही जाता है इस जीव के मन में सभी इच्छायें पतन की ओर ले जाने वाली ही उत्पन्न होती हैं, उन्नति की ओर ले जाने वाली कुछ भी नहीं होतीं । यह अपने ब्रह्म प्राप्ति रूप जीवन का उपाय तो जानता ही नहीं । इसके मन में तो सकाम कर्म रूप जन्म - मरण का उपाय ही बसा रहता है । 
बँध्या बहुत विकार सौं, सर्व पाप का मूल । 
ढाहै सब आकार को, दादू येह स्थूल ॥ ६३ ॥ 
प्राणी का यह स्थूल शरीर अन्त:करण के कामादिक बहुत - से विकारों से बंधा हुआ है और अपनी भोगाशा की पूर्ति के लिए सभी प्राणी आदि आकृततियों को नष्ट करता रहता है । इसलिए सर्व पाप का मूल है ।
(क्रमशः)

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