#daduji
卐 सत्यराम सा 卐
*सतगुरु मिलै तो पाइये, भक्ति मुक्ति भंडार ।*
*दादू सहजैं देखिए, साहिब का दीदार ॥*
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**श्री रज्जबवाणी**
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
साभार विद्युत् संस्करण ~ Mahant Ramgopal Das Tapasvi
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**श्री गुरूदेव का अंग ३**
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जन रज्जब गुरु की दया, सु दृष्टि प्राप्त सु होय ।
प्रगट रू गुप्त पिछानिये, जिस हि न देखे कोय ॥५३॥
गुरदेव की दया से सुन्दर ज्ञान की दृष्टि प्राप्त होती है, जिसके बल से साधक प्रगट रूप से भासने वाले मायिक संसार को मिथ्यारूप से पहचानता है, और जिसे कोई भी अज्ञानी नहीं देख सकता, उस गुप्त रूप से रहने वाले परमात्मा को सत्य तथा अपना निज स्वरूप समझ कर पहचानता है ।
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मरजीवे की मेत्री हि, मोती आवे हाथ ।
त्यों रज्जब गुरु की दया, मिले सु अविगत१ नाथ ॥५४॥
मरजीवा से मित्रता होने पर निश्चय ही मोती मिलता है । वैसे ही गुरु की दया होने पर मन इन्द्रियों के अविषय१ परमात्मा मिलते हैं ।
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गुरु गोविन्द हि सेव तों१, सब अंग२ हुँ शिष पूर३ ।
जन रज्जब ऊंणति४ उठै, दुख दारिद्र सु दूर ॥५५॥
गुरु - गोविन्द की सेवा करने से१ शिष्य संपूर्ण लक्षणों२ से पूर्ण३ हो जाता है, उसकी सब प्रकार की कमी४ उसके हृदय से उठ जाती है । जन्मादिक दुख नष्ट हो जाते हैं और आशा रूप द्ररिद्रता भी सम्यक प्रकार दूर हो जाती है ।
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सद्गुरु शून्य१ समान है, शिष आभे२ तिन माँहिं ।
अकलि३ अंभ४ तिन में अमित, रज्जब टोटा नाँहिं ॥५६॥
सद्गुरु आकाश१ के समान हैं, और गुरु आज्ञा में रहने वाले शिष्य बादल२ के समान हैं । नभ स्थित बादल में जैसे अपार जल४ होता है, वैसे ही गुरु आज्ञा में रहने वाले शिष्यों में अपार ज्ञान३ होता है, कुछ भी कमी नहीं रहती है ।
(क्रमशः)
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