बुधवार, 14 जून 2017

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卐 सत्यराम सा 卐
*दादू एक सुरति सौं सब रहैं, पंचों उनमनि लाग ।*
*यहु अनुभव उपदेश यहु, यहु परम योग वैराग ॥* 
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*परम वैराग्य क्या है?* 
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शुभ प्रभात प्रिय सनातनियों, आपका सोमवार शिवम् की अनुभूति वाला हो, मित्रो स्वयं को जानने में(भगवत प्राप्ति में) सब से बड़ी बाधा हमारे चित्त की दशा ही हैं। अभी हमारे चित्त की दशा अतिशय संसार की तरफ झुकी हुयी है। इसे संसार के विरोध में अतिशय न झुका ले हम। क्योंकि अति ही रोग है।
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चेतना जब ठीक मध्य में ठहर जाती है, तब न वासना डिगाती है, न वैराग्य डिगाता है, कुछ कम्पित होता ही नहीं, न इस तरफ, न उस तरफ। हम उठे-बैठे, परन्तु भीतर कोई उठता बैठता नहीं, भोजन करे, उपवास करे, हमारे भीतर न कोई भोजन करता है, न उपवास करता है, संसार में रहे कि सन्यास में, भीतर न तो संसार है और न सन्यास है। ऐसी परम मध्यावस्था ही वैराग्य है। *वैराग्य राग के विपरीत हो तो गलत है, वैराग्य राग से मुक्ति हो तो सही है। ये बड़ा बारीक भेद है। वैराग्य राग के विपरीत यदि है तो समझ ले हम कि उससे चूक हो गई है। जो राग के विपरीत है वो राग से जुड़ा है। सभी विपरीत आपस में जुड़े हैं।*
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*वास्तविक त्याग तब है जब मनुष्य रुख नहीं बदलता, संसार को गौर से देखता है, और उस गौर से देखने में ही संसार तिरोहित हो जाता है। उस बोध में हम देख लेते है कि संसार के सारे सम्बन्ध व्यर्थ हैं।* और तब हम संसार से कोई नया सम्बन्ध निर्मित नहीं करते, कि अब तक आकर्षण से जुड़े थे, अब विकर्षण से स्वयं को जोड़ लूं। नहीं, यदि ऐसा हुआ तो वैराग्य गलत हो गया। ये एक नया रोग लग गया अब, और अब इस रोग से भी छुटकारा पाना होगा।
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*वैराग्य, राग का आभाव है। ऐसा नहीं है कि राग चला जायेगा और वैराग्य आकर विराजमान हो जायेगा। नहीं, राग तो चला जायेगा, उस स्थान पर कोई नया आकर विराजमान न होगा। ये ही है परम् वैराग्य।*

जय सनातन।

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