मंगलवार, 13 जून 2017

= १०० =


卐 सत्यराम सा 卐
*कच्छप दृष्टि धरै धियांन,* 
*चातक नीर प्रेम की बान ।*
*कुंजी कुरलि संभालै सोइ,* 
*भृंगी ध्यान कीट को होइ ॥* 
*श्रवणों शब्द ज्यूं सुनै कुरंग,* 
*ज्योति पतंग न मोड़ै अंग ।*
*जल बिन मीन तलफि ज्यों मरै,* 
*दादू सेवक ऐसै करै ॥* 
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*पहले शून्य फिर महाशून्य* 
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मनुष्य शरीर का मिलना अपने आप में परमात्मा की अनंत कृपा का द्योतक है । इस मनुष्य देह में रहते हुए ही हमें इस संसार को जानना है और आध्यात्मिक जगत की यात्रा भी करनी है । यह शरीर रूपी घर हमें मिला है, परंतु यह हमारा नहीं है। इस शरीर की सार्थकता तभी है जब इस देह में रहते हुए हम उस परमसत्ता को जान सकें । 
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वह परमसत्ता केवल मनुष्य शरीर में रहते ही जानी जा सकती है । पहले शरीर फिर मन और फिर शरीर और मन से ऊपर उठकर ही आत्मा की प्रतीति होती है। शरीर और मन के बिना संसार का भोग नहीं और शरीर को किराए का घर समझे बगैर और मन का अतिक्रमण किए बगैर आत्मा का बोध नहीं । हमें दोनों को अनुकूल बनाकर जगत और परमतत्व को जानना है । संसार में रहना और अपने आपमें यात्रा करना है । जो संसार मिल गया है उसी के लिए पुन: प्रयत्‍‌न क्यों करना ? इसीलिए स्थित प्रज्ञ बनें-अपनी अंतर्यात्रा की ओर जाने के लिए, अपने सर्वांगीण विकास के लिए । इसलिए जीवन में कुछ समय के लिए ठहरें । 
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सारे संसार को चलने दो, बहने दो, उछल कूद करने दो, परंतु स्वयं सिमट जाओ, भीतर को सिकोड़ लो अपने को । उसी तरह जैसे कछुए पर प्रहार करने पर भी उस पर कोई विशेष प्रभाव नहीं पड़ता है और वह स्वयं को समेट लेता है । जैसे योगी जब अपने आपमें बैठ जाता है, फिर वाह्य मन से सो जाता है । तन को जड़ बना देता और अंतर्मन से जाग जाता है । वाह्य स्पंदन से, स्पर्श से, स्वाद से, सुंदरता से, मान-अभिमान से, प्रतिष्ठा से कटकर अंतर्मन में समर्पित होना है। यह तभी संभव है जब श्रद्धापूर्वक ध्यान साधना की जाए । इस मन को परिधि से केंद्र(आत्मा) की तरफ ले जाना है ताकि यह अंतर्मुखी हो सके । अंतत: हम शून्य से महाशून्य में विसर्जित हो सकें ।

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