बुधवार, 14 जून 2017

= माया का अंग =(१२/७०-२)

#daduji


卐 सत्यराम सा 卐 
*श्री दादू अनुभव वाणी* 
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥ 
*माया का अँग १२*
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*माया* 
सांपनि एक सब जीव को, आगे पीछे खाइ । 
दादू कह उपकार कर, कोइ जन ऊबर जाइ ॥ ७० ॥
७० - ७२ में माया का प्रभाव बता रहे हैं - जैसे सर्पणी अपने बच्चों को आगे पीछे आप ही खा जाती है, जो उसकी निकाली हुई लकीर से बाहर हो जाता है, वही बचता है । वैसे ही माया भी अपने कार्य रूप जीवों का आगे पीछे जन्म - मरण रूप भोजन करती रहती है=जन्म - मरण के चक्र में घुमाती रहती है । कोई विरला ही जन सन्तों के उपदेश रूप उपकार द्वारा माया की अविद्या रूप लकीर से बाहर निकल कर परब्रह्म को प्राप्त होता है और माया से बच पाता है । 
दादू खाये सांपनी, क्यों कर जीवें लोग ।
राम मँत्र जन गारुड़ी, जीवें इहिं सँजोग ॥ ७१ ॥ 
माया रूप सर्पणी ने जीवों को काटा है । अब वे जीव किस उपाय से जीवित रह सकते हैं ? उत्तर - राम नाम रूप गारुड़(सर्प विष नाशक) मँत्र और सन्त जन रूप गारुड़ी(सर्प विष उतारने वाले) का सँयोग इस मनुष्य जन्म में हो जाय तो विष उतर कर ब्रह्म - प्राप्ति रूप अखँड जीवन प्राप्त हो जायगा । 
दादू माया कारण जग मरे, पिव के कारण कोइ । 
देखो ज्यों जग परजले, निमष न न्यारा होइ ॥ ७२ ॥ 
माया की प्राप्ति के लिए सब जगत् के प्राणी पच - पच कर मर रहे हैं किन्तु परमात्मा की प्राप्ति के लिए तो कोई विरला ही प्रयत्न करता है । जैसे अग्नि में पड़कर तृण जलते हैं वैसे ही देखो ! प्राणी मायिक विषयों में पड़कर कामादि से जल रहे हैं, फिर भी एक निमेष मात्र भी विषयों से अलग नहीं होना चाहते । ऐसा माया का प्रभाव है ।
(क्रमशः)

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