मंगलवार, 6 जून 2017

श्री गुरूदेव का अंग ३(३७-४०)


卐 सत्यराम सा 卐
*सतगुरु संगति नीपजै, साहिब सींचनहार ।*
*प्राण वृक्ष पीवै सदा, दादू फलै अपार ॥* 
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साभार विद्युत् संस्करण ~ Mahant Ramgopal Das Tapasvi
**श्री रज्जबवाणी** 
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
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**श्री गुरूदेव का अंग ३**
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गुरु सु दिखावे शब्द में, रमता१ रामति२ और ।

देखन को दर्पण इहै, जन रज्जब निज ठौर ॥३७॥
३६-४४ में गुरु शब्दों की विशेषता बता रहे हैं - रमने१ वाले राम को और उसकी रमन२ भूमि मायिक संसार को सद्गुरु अपने शब्दों में भलि भाँति भिन्न भिन्न दिखा देते हैं, अर्थात राम सत्य है और माया तथा मायिक कार्य मिथ्या है, यह बता देते हैं । वैसे ही ब्रह्म रूप निज धाम को देखने के लिये भी इस संसार में सद्गुरु शब्द ही दर्पण है ।
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सद्गुरु वाइक बीज है, प्राण पुहमि१ में बोय । 
रज्जब राखे जतन कर, मन वाँछित फल होय ॥३८॥
साधन - वृक्ष का बीज सद्गुरु वचन ही है, उसको साधक प्राणी निज अन्त:करण रूप पृथ्वी१ में बोये और विचार जल से सींचना तथा कुविचार -पशुओं से बचाना रूप यत्न से रक्खे तो, मन की इच्छानुसार उससे फल प्राप्त होगा ।
जो प्राणी रुचि से गहै, उर अंतर गुरु बैन ।
जन रज्जब युग युग सुखी, सदा सु पावे चैन ॥३९॥
जो प्राणी गुरु वचनों को प्रेम पूर्वक हृदय में धारण करता है वह अपने जीवन काल में सदा सम्यक् प्रकार सुख ही पाता है और ब्रह्म को प्राप्त करके प्रति युग में सुखी रहता है ।
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सद्गुरु शब्द अनन्त दत१, युग युग काटे कर्म ।
जन रज्जब उस पुण्य पर, और न दीसे धर्म ॥४०॥
सद्गुरु का शब्द प्रदान करना अनन्त दान१ है, अनन्त युगों के कर्म को नष्ट कर डालता है, सद्गुरु शब्द जन्य ज्ञान से होने वाले पुण्य से अधिक अन्य कोई भी धर्म नहीं दिखता । 
(क्रमशः)

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