卐 सत्यराम सा 卐
*दादू सतगुरु सहज में, किया बहु उपकार ।*
*निर्धन धनवंत करि लिया, गुरु मिलिया दातार ॥*
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**श्री रज्जबवाणी**
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
साभार विद्युत् संस्करण ~ Mahant Ramgopal Das Tapasvi
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**श्री गुरूदेव का अंग ३**
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रज्जब बपु बनराय विधि, मधि मन मधु सम सान ।
बलिहारी गुरु मक्षिका, यहु छानी१ गति२ छान३ ॥५७॥
जिस प्रकार वन पंक्ति के पुष्पों में शहद छिपा रहता है, वैसे ही शरीराध्यास में मन रहता है । जैसे शहद को मधु मक्षिका निकाल लाती है वैसे ही गुरु मन को निकाल लाते हैं, यह जो मन की छिपी१ हुई स्थिति२ है उससे भी मन को गुरु निकाल३ लाते हैं, अत: मैं गुरुदेव की बलिहारी जाता हूँ ।
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माया पानी दूध मन, मिले सुमुहकम१ बंधि२ ।
जन रज्जब बलि हंस गुरु, सोधि लहीसो संधि ॥५८॥
जैसे जल और दूध दृढ़१ संबंध२ से मिले रहते हैं तो भी उनको हंस अलग कर देता है । वैसे ही माया और मन दृढ़ संबंध से मिले रहते हैं, तो भी माया और मन की राग रूपी संधि को खोज के गुरु अपने उपदेश के द्वारा माया को मिथ्या बता कर मन को माया से अलग कर देते हैं, अत: मैं गुरुदेव की बलहारी होता हूँ ।
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अर्क अंभ को नाश कर, स्वाद रंगतैं काढ़ ।
रज्जब रचना हंस की, क्षीर नीर पर बाढ़ ॥५९॥
सूर्य जल को नष्ट करके ही स्वाद तथा रंग से अलग करते हैं, किन्तु हंस बिना नष्ट किये ही दूध से जल को अलग कर देते हैं । अतः अलग करने की क्रिया रूप रचना हंस की ही श्रेष्ठ मानी जायगी वैसे ही काल शरीर को नष्ट करके धनादि से अलग करता है किन्तु गुरु शरीर के रहते ही उपदेश के द्वारा, धनादि से अलग कर देते हैं, अतः गुरु का कार्य श्रेष्ठ है ।
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संसार सार१ में विभूति वह्नि, मनसा अग्नि मिलाप ।
शीत रूप ह्वै सद्गुरु काढे, मिश्रित मुक्त सुताप ॥६०॥
जैसे लोहे१ में प्रथम अग्नि होता है किन्तु बाहर का अग्नि मिलता है तब वह तपता है, फिर बाहर का अग्नि शांत होने पर लोहा शीतल हो जाता है, वैसे ही संसार में ऐश्वर्य रूप अग्नि तो प्रथम ही है किन्तु मन से उत्पन्न चिन्तादि रूप अग्नि उनसे मिलता है तब सांसारिक प्राणी संतप्त होते हैं, फिर सद्गुरु अपने उपदेश से चिन्तादि रूप को उनके मन से निकाल लेते हैं तब पुन: सांसारिक प्राणी उस संताप से मुक्त हो जाते हैं ।
(क्रमशः)
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