बुधवार, 28 जून 2017

= माया का अंग =(१२/१०६-८)

#daduji

卐 सत्यराम सा 卐 

*श्री दादू अनुभव वाणी* 
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
.
*माया का अंग १२*
.
जन जन के उठ पीछे लागे, घर घर भरमत डोले । 
तातैं दादू खाइ तमाचे, माँदल१ दूहुं मुख बोले ॥ १०६ ॥ 
माया प्रत्येक मानव के पीछे लगती है, घर - घर में भ्रमण करती फिरती है । जैसे मृदँग१ दोनों मुखों से बोल ती है तब उसके दोनों ओर आघात पड़ते हैं । वैसे ही माया भी एक की नहीं होने से विरक्त सँतों के आते - जाते दोनों ही बार अनादर रूप थप्पड़ें खाती है=सँत माया के आने पर उससे राग नहीं करते, जाने पर शोक नहीं करते, वे तो भगवत् - परायण रहते हैं । 
.
*विषय विरक्तता* 
जे नर कामिनि परिहरैं, ते छूटैं गर्भवास । 
दादू ऊंधे मुख नहीं,रहें निरंजन पास ॥ १०७ ॥ 
१०५ - १०७ में विषय - विरक्तों की विशेषता बता रहे हैं - जो कामिनी का त्याग करते हैं वे सन्त गर्भवास में अधोमुख लटकने के दु:ख से मुक्त हो जाते हैं, पुन: वह दु:ख उन्हें नहीं होता । वे सदा के लिए निरंजन ब्रह्म के स्वरूप में समा जाते हैं ।
.
रोक न राखे, झूठ न भाखे, दादू खरचे खाइ । 
नदी पूर१ प्रवाह ज्यों, माया आये जाइ ॥ १०८ ॥ 
सँतों के पास माया नदी - जल१ - समूह - प्रवाह के समान आती है और चली जाती है । वे आते ही परोपकार में खर्च कर देते हैं, कुछ खा जाते हैं । संग्रह नहीं रखते और माया के लिये मिथ्या नहीं बोलते ।
(क्रमशः)

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें