बुधवार, 28 जून 2017

श्री गुरूदेव का अंग ३(९७-१००)

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卐 सत्यराम सा 卐

*इक लख चन्दा आण घर, सूरज कोटि मिलाय ।*
*दादू गुरु गोविन्द बिन, तो भी तिमिर न जाय ॥* 
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**श्री रज्जबवाणी** 
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
साभार विद्युत् संस्करण ~ Mahant Ramgopal Das Tapasvi
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**श्री गुरूदेव का अंग ३**
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गुरु मुख मारग ना गहे, मन मुख मारग चाल्या जाय ।
रज्जब नर निवहै नहीं, बातैं कहो बनाय ॥९७॥
गुरु मुख से सुने हुये ब्रह्म प्राप्ति के मार्ग में चलता नहीं और अपने मन की इच्छानुसार बिषयों की और ही चला जा रहा है, वह नर नाना विचित्र ढंग बना-बना कर बातें तो चाहे कहता रहे, किन्तु ब्रह्म प्राप्ति के मार्ग में उसका निर्वाह नहीं हो सकता । 
मन मुख मानुष भूत पशु, गुरु मुख ज्ञाता देव ।
रज्जब पाया प्राणने, पंच खानि का भेव ॥९८॥
मन की इच्छा के अनुसार चलने वाले मनुष्य पशु और भूत तुल्य होते हैं, गुरु आज्ञानसार चलने वाले ज्ञानी और देव तुल्य होते हैं । जिस प्राणी ने उक्त बात अच्छी प्रकार जानली उसने जेरज, अंडज, स्वेदज, उदभिज्ज और नादज इन पांचों खानियों का रहस्य अच्छी प्रकार जान लिया है । 
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उडग१ इन्दु दामिनि दुणंद२, पावक दीप असंखि ।
रज्जब राम न सूझई, बिन गुरु ज्ञान सु अंखि ॥९९ ॥
तारा१, चन्द्रमा, बिजली, सूर्य२, अग्नि, दीपक, ये सभी असंख्य होवें तो भी निरंजन राम तो गुरु ज्ञान रूप नेत्रों के बिना नहीं दिखते ।
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दीपक रूपी धरणि ह्वे, सूरजमय आकाश ।
जन रज्जब गुरु ज्ञान बिन, हरदै नहीं उजास ॥१००॥
सम्पूर्ण पृथ्वी दीपक रूप हो जाय और सब आकाश सूर्य रूप हो जाय, तो भी गुरु के ज्ञान बिना प्राणी के हृदय में तो प्रकाश नहीं होता ।
(क्रमशः)

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