शनिवार, 10 जून 2017

= माया का अंग =(१२/५८-६०)


#daduji
卐 सत्यराम सा 卐 
*श्री दादू अनुभव वाणी* 
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥ 
*माया का अँग १२*
.
दादू चन्द गिले जब राहु को, गहण गिले जब सूर । 
जीव गिले जब कर्म को, राम रह्या भरपूर ॥ ५८ ॥ 
चन्द्र और सूर्य का राहु केतु की राशि को उल्लँघन कर जाना ही राहु केतु का निगलना है । वैसे ही जब जीव का मन रूप चन्द्रमा शुभ निष्काम कर्म से निर्मल हो जाता है, तब भोग - वासनाओं की कमी से विवेक रूप सूर्य भी चमकने लगता है । विवेक होते ही जीव वैराग्यादि साधनों द्वारा ब्रह्म - ज्ञान प्राप्त करके सँचित और आगामी कर्मों को नष्ट कर डालता है, यही जीव का कर्मों को निगलना है । इस प्रकार अपने आत्मा को कर्म रहित जान कर अपने रोम - रोम में तथा सँपूर्ण विश्व में अपने आत्म - स्वरूप राम को परिपूर्ण रूप से देखता है । 
कर्म कुहाड़ा, अँग वन, काटत बारँबार । 
अपने हाथों आपको, काटत है सँसार ॥ ५९ ॥ 
सभी सँसार के प्राणी अपने ही हाथों से सकाम कर्म रूप कुठार द्वारा अपने शरीर वन को काटते हैं । एक ही बार नहीं, किन्तु बारँबार काटते ही रहते हैं= कर्मों द्वारा जन्मते मरते हैं । 
*स्वकीय शत्रु मित्रता* 
आपै मारे आप को, यहु जीव विचारा । 
साहिब राखणहार है, सो हितू हमारा ॥ ६० ॥ 
६० - ६१ में कहते हैं - जीव आप ही अपना शत्रु और मित्र है । यह जीव अविद्या के वश होकर निषिद्ध कर्मों द्वारा आप ही अपना पतन करता है, अत: शत्रु है । जब हम विचार करके देखते हैं तो हमारा सच्चा हितैषी और रक्षा एक परमात्मा ही दीखता है, उसकी उपासना करे तो जीव आप ही अपना मित्र हो जाता है ।
(क्रमशः)

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें