बुधवार, 21 जून 2017

= माया का अंग =(१२/८५-७)

#daduji

卐 सत्यराम सा 卐 

*श्री दादू अनुभव वाणी* 
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥ 
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*माया का अंग १२*
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दादू बाहे१ देखताँ, ढिग ही ढोरी लाइ । 
पिव पिव करते सब गये, आपा दे न दिखाइ ॥ ८५ ॥ 
जैसे बाजीगर पास खड़ा देखता हुआ ही दर्शकों को अपनी बाजी से बहकाता१ है । वैसे ही ईश्वर ने जीवों के साथ ही रहकर सब कुछ देखते हुये भी उनमें अपने मिलन की लग्न लगाकर उन्हें बहका दिया है । वे विरही जीव पीव - पीव करते हुये सब वैकुण्ठादि लोकों को चले गये किन्तु उनको अपना वास्तविक स्वरूप नहीं दिखाया । यही उसकी बाजीगरी है । ८४ - ८५ का अर्थ पद नँ - १४० और १५४ में स्पष्ट होता है । 
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मैं चाहूं सो ना मिले, साहिब का दीदार । 
दादू बाजी बहुत हैं, नाना रँग अपार ॥ ८६ ॥ 
माया रूप बाजी तो नाना प्रकार के रँगों वाली बहुत सामने आती है किन्तु मैं चाहता हूं परमात्मा का साक्षात्कार, सो हो नहीं रहा है । 
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हम चाहैं सो ना मिले, अरु बहुतेरा आहि । 
दादू मन माने नहीं, केता आये जाहि ॥ ८७ ॥ 
ध्यानावस्था में भी हम जो चाहते हैं, उस परब्रह्म का साक्षात्कार तो नहीं होता और ही बहुत - से दृश्य देखने में आते हैं, किन्तु उनको हमारा मन सत्य मान कर तृप्त होता नहीं । ऐसे मायिक दृश्य कितने ही आते हैं और चले जाते हैं ।
(क्रमशः)

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