बुधवार, 21 जून 2017

श्री गुरूदेव का अंग ३(७७-८०)


卐 सत्यराम सा 卐 
*जब ही कर दीपक दिया, तब सब सूझन लाग ।*
*यों दादू गुरु ज्ञान थैं, राम कहत जन जाग ॥* 
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**श्री रज्जबवाणी** 
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥ 
साभार विद्युत् संस्करण ~ Mahant Ramgopal Das Tapasvi
**श्री गुरूदेव का अंग ३** 
सद्गुरु काढे सकल सौं, तन मन पर लेजाय ।
जन रज्जब राखे तहाँ, जहाँ निरंजन राय ॥७७ ॥
सद्गुरु अपने उपदेश द्वारा धन, धाम और स्वजनादि सबके राग से निकालकर, तनाध्यास तथा मन के मनोरथों से भी परे जहाँ विश्व के अधिष्ठान निरंजन राम का साक्षात्कार होता है, उस निर्विकल्प समाधि में ले जाकर अपने आत्म - स्वरूप ब्रह्म में स्थित करते हैं । 
तन मन शक्ति समुद्र गति, निर्मल नाम जहाज । 
बादबान१ बुधि थंभ चढ़, गुरु सारे शिष काज ॥७८ ॥
अध्यासरूप शरीर की शक्ति और चंचलतादि रूप मन की शक्ति का स्वरूप समुद्र के समान दुस्तर है, किन्तु गुरुदेव, निरंजन राम के निर्मल नाम का जहाज बनाकर तथा बुद्धिरूप स्तम्भ पर ज्ञानरूप वस्त्र१ चढाकर संसार से पार जाना रूप कार्य शिष्य का सिद्ध कर देते हैं ।
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गुरु दीरध गोविन्द सौं, सारे शिष्य सुकाज ।
ज्यौं रज्जब मक्का बड़ा, परि पहुँचे बैठि जहाज ॥७९ ॥
जैसे बड़ा तो मक्का तीर्थ ही है, किन्तु वहाँ जहाज पर बैठ कर पहुँचा जाता है । वैसे ही बड़े तो गोविन्द ही हैं, किन्तु गुरु उपदेश बिना गोविन्द की प्राप्ति कठिन है । गुरु शिष्य के मुक्ति रूप कार्य को सिद्ध करते हैं, अत: शिष्य की दृष्टि से गुरु गोविन्द से भी बड़े माने जाते हैं ।
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सांई शून्य समीर१ सम, वायु वदन गुरु ठाट२ ।
गाल खाल के मारतौं, रज्जब निपजे घाट३ ॥८० ॥
ईश्वर आकाश के वायु१ के समान हैं, गुरु की बनावट२ मुख के वायु के समान है । आकाश के वायु से कोई शब्द नहीं बनता, किन्तु मुख के वायु की चोट गाल आदि चर्म स्थानों में लगती है, तब शब्दरूप शरीर३ बनता है और उन गुरु-मुख से निकले हुये शब्दों से शिष्यों को उद्धार होता है । अत: प्राणियों के उद्धार करने वाले गुरु ही हैं ।
(क्रमशः)

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