मंगलवार, 20 जून 2017

= १०९ =


卐 सत्यराम सा 卐
*दादू ऐसा बड़ा अगाध है, सूक्षम जैसा अंग ।*
*पुहुप वास तैं पतला, सो सदा हमारे संग ॥* 
==========================
साभार ~ Vijay Divya Jyoti
*जीवनरूपी महल का मालिक कौन ?*
एक समय की बात है। एक सम्राट था जो अपने जीवन के अंतिम दिनों की गिनती कर रहा था और बहुत चिंतित था, आने वाली मौत के लिए नहीं वरन इसलिए कि अपने तीन पुत्रों में से किसको उत्तराधिकारी बनाए? सम्राट निर्णय लेने में असमर्थ था क्योंकि कुछ चीजें होती हैं जो बाहर से नापी जा सकती हैं, लेकिन जीवन में जो भी महत्वपूर्ण है उसे नापने के लिए ना तो कोई तराजू है और ना कोई बाँट। 
.
अंततः सम्राट उस इलाके में रहने वाले संत के पास गया और उसने सम्राट को रास्ता सुझाया। राजधानी में सम्राट के तीन महल थे जो उसने तीन पुत्रों को दे रखे थे। उसने तीनों को सौ-सौ रुपये दिये और कहा कि इन सौ रुपए से ऐसी वस्तु खरीदना कि महल भर जाए, जरा सी भी जगह खाली न बचे। जो तीनों में सर्वाधिक सफल होगा, वही मेरे राज्य का उत्तराधिकारी होगा।
पहले पुत्र ने सोचा कि सौ रुपये में कहाँ महल भरा जा सकेगा? चलो जुए में दांव लगाता हूँ। जीत गया तो रुपयों से ही महल को भर लूँगा। मगर वो सौ रुपये भी हार गया क्योंकि अक्सर ऐसा ही होता है, जो बहुत को पाने के लिए दांव लगाते हैं, वे वो भी खो देते हैं, जो उनके पास है। ये राजकुमार भी खोकर आया और उसका महल खाली रह गया। 
.
दूसरे ने दिमाग लगाया और सोचा सौ रुपये में हीरे जवाहरात से तो महल को भरा नहीं जा सकता। एक ही रास्ता है कि इस इलाके का जो कूड़ा करकट बाहर जाता है, उसे ही खरीदकर महल को भर लिए जाए। कूड़ा कचरा खरीदकर उसने महल को तो भर दिया किन्तु साथ ही दुर्गंध भी महल में भर गयी।
तीसरे राजकुमार ने भी सौ रुपये में महल भरा मगर किससे और कैसे? क्या अनुमान लगा सकते हैं आप? यदि आपका उत्तर “ना” में है तो फिर आपके जीवन का महल खाली ही रह जाएगा और यदि आपका उत्तर “हाँ” है, तो फिर वास्तव में आप अपने जीवनरूपी महल के मालिक हैं। खैर ये मैं आपकी ईमानदारी पर छोडता हूँ। 
.
निर्णय की तिथि आ गयी। सम्राट आया और पहले राजकुमार ने कहा “क्षमा करें पिताजी, सौ रुपये बहुत कम थे। सोचा जुआ खेलूँ और जीत गया तो महल को भर दूँगा। मगर मैं हार गया और महल खाली रह गया।” 
.
दूसरे महल पर जाकर तो सम्राट को घबराहट हो गयी। इतनी दुर्गंध फैली हुई थी। राजकुमार ने कहा कि “पिताजी सौ रुपये में तो केवल कूड़े से ही महल को भरा जा सकता था।” 
.
फिर सम्राट तीसरे महल पर गया और वो और उसके दरबारी आश्चर्यचकित रह गए। बहुत सुगंध थी उस महल के पास और जबकि अमावस की रात थी वो मगर महल रोशनी से जगमग था। राजा ने पूछा कि तूने किस चीज़ से महल को भरा। उस राजकुमार ने कहा “प्रकाश से और सुगंध से”। सौ रुपये से फूल, दीये और तेल बाती खरीदकर उसने रोशनी की और जगह जगह फूलों की माला बनाकर लटका डाली। महल सुगंध और रोशनी से भरा हुआ था अमावस की रात में भी। 
.
दोस्तों तीसरा राजकुमार सम्राट हो गया। उस राज्य का उत्तराधिकारी हो गया। मगर हममें से, बहुत ही मुश्किल है कि कोई जीवन का सम्राट हो सके क्योंकि या तो हमने जीवन को दांव पर लगा रखा है। और हर दांव इस आशा में कि कुछ मिलेगा तो फिर हम जी लेंगे। और जैसा कि हर दांव में होता है, हम हारते चले जाते हैं और जीवन का महल अंततः सूना अर्थात खाली रह जाता है। 
.
और या फिर हममें से कुछ ने कूड़े करकट से महल भरने की ठान ली है। जीवन में जो भी जीवन के लिए व्यर्थ है, उसी को खरीदकर हम महल में लिए चले आ रहे हैं। जिसका कोई मूल्य नहीं, जिसका कोई अर्थ नहीं, उस कूड़े करकट को हम इकट्ठा कर रहे हैं अपने जीवन के महल में क्योंकि तर्क हमारा ये है कि इतना छोटा सा जीवन, इतनी छोटी शक्ति, इससे हीरे जवाहरात कहाँ खरीद पाएंगे हम, इतने में तो महल कूड़े से ही भरा जा सकता है। लेकिन हम ये नहीं समझते कि जिस महल को हम भरने में लगे हैं, उसी की दुर्गंध हमें उस महल के भीतर रहने नहीं देगी। हमारा जीना मुश्किल हो गया है आज, अशांत हैं हम। दुख और चिंताएँ दुर्गंध के रूप में व्याप्त हैं हमारे जीवन में। 

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें