卐 सत्यराम सा 卐
*पीया तेता सुख भया, बाकी बहु वैराग ।*
*ऐसे जन थाके नहीं, दादू उनमनि लाग ॥*
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साभार ~ oshoganga.blogspot.com
'जिसने किंचित भी गीता पढ़ी है.......'
जिसने जरा सा भी पढ़ ली, एक शब्द भी समझ लिया; लेकिन समझ का सवाल है। मनुष्य सीखने की ज्यादा दौड़ में न पड़े, उससे मनुष्य वंचित ही रह जायेगा। जरा सा बोध परमात्मा का हो गया तो वो ही बीज बन जायेगा -
फूटेगा, वृक्ष बनेगा, मनुष्य सुगंध से भर जायेगा।
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एक बीज में सब छिपा है। एक किरण भी मनुष्य यदि पकड़ ले और उस किरण के सहारे चले तो सूरज कहां जायेगा? उस किरण में पूरा सूरज छिपा है, मनुष्य उसके सहारे चल पड़े तो सूरज तक पहुंच जायेगा। पूरे सूरज को उतारने की जरूरत नहीं है।
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मनुष्य को प्रतीत होता है कि सब समझ शास्त्र से मिल जायेगी। पढ़ लेंगे और समझ मिल जायेगी। काश ! समझ इतनी सस्ती होती तो सारी दुनिया समझदार हो गई होती। और शास्त्र जितना उपलब्ध होता जाता है, मनुष्य उतना ही प्रयास करना छोड़ देता है। ध्यान रहे, सिद्धांतो के जंगल में कहीं भटकाव न होने पावे।
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'जिसने किंचित भी गीता पढ़ी है,गंगाजल की एक बूंद भी पी ली है.......' किस गंगा की बात कर रहें हैं शंकराचार्य? जिस गंगा पर तीर्थयात्रा करने मनुष्य जाता है, उस की बात नहीं हो रही है। गंगा तो प्रतीक है। जिसने पवित्रता की एक बूंद पी ली, जिसने निर्दोषता की एक बूंद पी ली, जिसने सरलता की एक बूंद पी ली; उसने गंगा को चख लिया। नहीं, बाहर दिखाई देने वाली गंगा का उल्लेख नहीं है। ये गंगा तो प्रत्येक मनुष्य के भीतर बहती है। और एक बूंद पर्याप्त है।
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लेकिन ठीक से समझे मनुष्य : गंगा से अर्थ है निर्दोषता का, गंगा से अर्थ है सरलता का, गंगा से अर्थ है भीतर के कुंआरेपन का।
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