#daduji
卐 सत्यराम सा 卐
*श्री दादू अनुभव वाणी*
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
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*माया का अँग १२*
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काया राखे बँद दे, मन दह दिशि खेल ह्वै ।
दादू कनक अरु कामिनी, माया नहिं मेलै ॥ ७६ ॥
दरसन पहरै मूँड मुँडावै, दुनियां देख त्याग दिखलावै ।
दादू मनसौं मीठी मुख सौं खारी, माया त्यागी कहैं बजारी ॥ ७७ ॥
शरीर को तो गुफा में बन्द करके वो आसन से स्थिर करके रखते हैं किन्तु उनका मन दशों दिशाओं में दौड़ - दौड़ कर कामिनी से क्रीड़ा करता रहता है और कनक रूप माया को कभी नहीं त्यागता । वे लोग मन से तो माया को आदर देते हैं और मुख से बुरी बताते हैं । इसीलिए अनजान बाजार के लोग उन्हें माया - त्यागी कहते हैं, किन्तु वे वास्तव में त्यागी नहीं होते ।
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*माया*
माया मंदिर मीच का, तामें पैठा धाइ ।
अँध भया सूझे नहीं, साधु कहैं समझाइ ॥ ७८ ॥
जीव पर माया मद के प्रभाव का परिचय दे रहे हैं - माया मृत्यु का घर है । प्राणी परमात्मा की ओर से दौड़कर उसी में आ घुसा है । यद्यपि सन्त समझा - समझा कर कहते हैं - "यह माया जन्म - मरण रूप दु:ख की हेतु है, तू इसकी आसक्ति छोड़ कर भगवद् भजन कर ।" किन्तु यह तो माया - मद से अपने विचार - नेत्र खोकर अँधा हो गया है । इसे कुछ समझ में ही नहीं आता ।
(क्रमशः)
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