卐 सत्यराम सा 卐
*श्री दादू अनुभव वाणी*
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
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*माया का अँग १२*
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दादू गतँ गृहँ, गतँ धनँ, गतँ दारा सुत यौवनँ ।
गतँ माता, गतँ पिता, गतँ बन्धु सज्जनँ ॥
गतँ आपा, गतँ परा, गतँ सँसार कत रँजनँ ।
भजसि भजसि रे मन, परब्रह्म निरंजनँ ॥ ४७ ॥
हे मन ! घर, धन, स्त्री, पुत्र, यौवन, माता, पिता, बान्धव, प्रिय मित्रगण, अपना, पराया जो भी कुछ यह सँसार है सो सब नष्ट हुआ ही समझ । इस विनाशी सँसार में तेरे को किस लिये प्रसन्नता होती है ? इसमें तो प्रसन्नता का कोई भी कारण नहीं है, अत: इसको त्याग कर शीघ्र ही निरंजन परब्रह्म का भजन कर ।
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*आसक्तता मोह*
जीवों माँहीं जीव रहे, ऐसा माया मोह ।
सांई सूधा१ सब गया, दादू नहिं अँदोह२ ॥ ४८ ॥
मोह - जन्य आसक्ति का प्रभाव बता रहे हैं - यह मायिक मोह ऐसा है - इसके वश होकर प्राणी का मन स्त्री - पुत्रादिक जीवों में ही आसक्त रहता है । इस आसक्ति के कारण ही भगवत् - प्राप्ति के अवसर के सहित१ जीवन का सभी समय व्यर्थ नष्ट हो जाता है तो भी प्राणी को दु:ख२ नहीं होता ।
(क्रमशः)
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