मंगलवार, 27 जून 2017

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卐 सत्यराम सा 卐
*समरथ सिरजनहारा, सो तेरे निकट गँवारा रे ॥* 
*सकल लोक फिर आवै, तो दादू दीया पावै रे ॥* 
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साभार ~ oshoganga.blogspot.com
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"जहां पुनः२ जन्म लेना है,पुनः२ मरना है और पुनः२ माता के गर्भ में आना है; ऐसे इस बहुदुस्तर संसार से, हे मुरारी मेरी रक्षा करो।'
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मनुष्य असहाय है और मनुष्य के संकल्प से कुछ नहीं हो सकता; क्योंकि मनुष्य जो भी करेगा, वह मनुष्य से छोटा होगा। परमात्मा विराट है। मनुष्य में है, लेकिन मनुष्य से बेहद विशाल है। ऐसे समझें कि जैसे बूंद में सागर है, बूंद में भी सागर का स्वाद है; और एक बूंद का भी यदि विश्लेषण किया जाये तो वही तत्व मिलेंगे जो पुरे सागर के विश्लेषण में मिलते हैं। फिर भी बूंद बड़ी छोटी है, बूंद से सागर झांका है। परमात्मा भी मनुष्य से झाँका है लेकिन अत्यंत विराट है।
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बूंद में छिपा सागर, बीज में छिपा वृक्ष- ऐसे परमात्मा मनुष्य से झांका है। मनुष्य अपने प्रयास से उसे न पा सकेगा, मनुष्य का प्रयास ऐसा ही है जैसे मुट्ठी में आकाश बांधने की चेष्टा; उसकी कृपा से ही मनुष्य उसे पा सकेगा। इसीलिये शंकराचार्य कहते हैं, 'हे मुरारी मेरी रक्षा करो।' मैं स्वयं तो इस भव सागर में खो जाऊंगा, मेरी शक्ति बड़ी छोटी है, मैं विचार भी करूंगा तो क्या करूंगा, सब सोच-विचार मेरा ही होगा। तुम हो विराट, तुम्हें पाने के लिए तुम्हारी ही सहायता की जरूरत है। 
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भक्त इसीलिये निरंतर आकांक्षा करता है कि परमात्मा का सहारा मिले। जिस क्षण मनुष्य उसका सहारा मांगने लगता है, मनुष्य पायेगा कि उसका सहारा मिलने लगा। मनुष्य ने निमंत्रण दे दिया-निमंत्रण भर की देर है। परमात्मा भी मनुष्य को खोज रहा है, लेकिन मनुष्य निमंत्रण नहीं देता।

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