रविवार, 25 जून 2017

= ११९ =

#daduji
卐 सत्यराम सा 卐
*दादू डोरी हरि के हाथ है, गल मांही मेरे ।*
*बाजीगर का बांदरा, भावै तहाँ फेरे ॥*
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संतों की वाणी में इतना रस किस स्रोत से आता है? और संतों की वाणी से तृप्ति और आश्वासन क्यों मिलता है?
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रस का तो एक ही स्रोत है–रसो वै सः ! रस का तो कोई और स्रोत नहीं है, परमात्मा ही रस का स्रोत है। रस उसका ही दूसरा नाम है।
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संत अपनी तो कुछ कहते नहीं, उसकी ही गुनगुनाते हैं। संत तो वही है जिसके पास अपना कुछ कहने को बचा ही नहीं है। अपना जैसा ही कुछ नहीं बचा है। संत तो बांस की पोली पोंगरी है, चढ़ा दी गई परमात्मा के हाथों में, अब उसे जो गीत गाना हो गा ले, न गाना हो न गाए, ऐसा बजाए कि वैसा बजाए। बांस की पोंगरी तो बस बांस की पोंगरी है। वह गाता है तो बांसुरी हो जाती है, वह नहीं गाता है तो बांस की पोंगरी बांस की पोंगरी रह जाती है! गीत उसके हैं बांसुरी के नहीं हैं। स्वर उसके हैं।
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संत तो केवल एक माध्यम है। संत तो केवल उपकरण है। परमात्मा के हाथ में छोड़ देता अपने को, जैसे कठपुतली !
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तुमने कठपुतलियों का नाच देखा? छिपे हुए धागे और पीछे छिपा रहता है उनको नचाने वाला। फिर कठपुतलियों को नचाता, जैसा नचाता वैसी कठपुतलियां नाचतीं। लड़ाता तो लड़तीं, मिलाता तो मिलती, बातचीत करवाता, हजार काम लेता।
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संत तो बस ऐसा है जिसने एक बात जान ली है कि मैं नहीं हूं, परमात्मा है। अब जो कराए। इसलिए रस है उनकी वाणी में, अमृत है उनकी वाणी में। अमृत बरसता है, क्योंकि वे अमृत के स्रोत से जुड़े गए हैं। कमल खिलते हैं, क्योंकि कमल जहां से रस पाते हैं उस स्रोत से जुड़ गए हैं।

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