卐 सत्यराम सा 卐
*दया करै तब अंग लगावै, भक्ति अखंडित देवै ।*
*दादू दर्शन आप अकेला, दूजा हरि सब लेवै ॥*
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साभार ~ Shiv Rathi
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अगर भगवान ने किसी व्यक्ति को, अपनी भक्ति तो नहीं दी, लेकिन बाकी संसार के सारे वैभव व भोग खूब सारे दे दिये, तो सन्त कहते हैं कि सच्ची बात तो यह है कि भगवान ने उसे कुछ भी नहीं दिया । पहली बात तो यह है कि भगवान के घर में पक्षपात तो है नहीं, जो किसी को अधिक दे दें और किसी को कम और न यह उनका विभाग है । उनसे तो सभी माँगते हैं । अगर यह मान लिया जाए कि भगवान सुख - सम्पत्ति देते हैं, तो तो फिर यह बात सिद्ध हो ही जाएगी कि उनके घर में भी पक्षपात होता है । क्योंकि ये दोनों ही सबके पास समान रूप में नहीं हैं । इसी से सिद्ध होता है कि यह जीव का केवल अज्ञान भर है । उसे मिलता वही है, जो वह देकर आया है, भगवान के देेने से नहीं ।
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हाँ ! यह सत्य है कि वे प्रभु कृपालु - दयालु हैं, वे कृपा करते हैं, उनकी कृपा होती रही है और हो रही है, लेकिन सुख - सम्पति उनकी कृपा नहीं है । उन्होंने अगर किसी को कुछ दिया है, यानी कृपा की है तो उन्हें ये नाशवान वस्तुएं न देकर अपनी भक्ति प्रदान की है, हृदय में प्रेम जाग्रत किया है । ये नाशवान वस्तुऐं तो सब यहीं छूट जाने वाली हैं, भला ये सब देकर वे कृपालु कहलाते ?
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इसलिए अगर ईश्वर ने कभी किसी को कुछ दिया है, तो वह भक्ति व प्रेम ही है । सुख - वैभव - सम्पत्ति तो जीव को उसके अपने प्रारब्ध से मिलते हैं । भक्ति साधन साध्य नहीं है, वल्कि कृपा साध्य है। "उन्होंने" किसी को कुछ दिया है, ऐसा तो तभी मानिए, जब उसके हृदय में भक्ति का अंकुर फूट गया हो....
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