शुक्रवार, 2 जून 2017

= ७७ =

卐 सत्यराम सा 卐
जे निकसे संसार तैं, सांई की दिशि धाइ ।
जे कबहुँ दादू बाहुड़े, तो पीछे मार्या जाइ ॥ 
दादू कोई पीछे हेला जनि करै, आगे हेला आव ।
आगे एक अनूप है, नहिं पीछे का भाव ॥ 
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*पद की कीमत*
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प्राचीन चीन राज्य में एक दर्शनिक थे। नाम था... 'चुआंग जू'। वे बहुत विद्वान और सूझबूझ वाले माने जाते थे। एक बार चीनी प्राधानमंत्री का पद रिक्त हो गया तो सभासदों और अन्य मंत्रीगणों के सुझाव पर राजा ने 'चुआंग जू' को प्रधानमंत्री बनाने का निर्णय किया। तय किया गया कि सरकारी सिपाही जाकर भावी मंत्री को उनके गाँव से आदर समेत ले आएँगे फिर उन्हें पदभार सौंपा जाएगा।
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राजा के सिपाही पहुँचे 'चुआंग जू' के गाँव में लोगों से पता चला कि वे इस वक्त नदी किनारे बँसी से मछली पकड रहे हैं। सिपाही वहीं पहुँचे, देखा वे सिपाहियों की ओर पीठ किये बैठे हैं। सिपाहियों ने उन्हें पुकारा तो उन्होंने उसी तरह बैठे-बैठे सिपाहियों से वहाँ आने का कारण पूछा। सिपाहियों ने बताया कि उन्हें प्रधानमंत्री के पद के लिए चुना गया है सो वे उनके साथ चलें और अपना पद भार ग्रहण करें।
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'चुआंग जू' उसी तरह बैठे-बैठे बोले - “एक बात बताओ?”
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सिपाही- “जी, पूछिये।”
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'चुआंग जू'- “मैने सुना है, राजा के महल में एक राजमंदिर है। जिसमें सोने की वेदी पर एक कछुवा रखा है... वह तीन सौ साल पहले मर गया था। कहते हैं तब से ही उसके शव को पवित्र मान कर उसे सोने की वेदी पर सजा कर उसकी पूजा होती आ रही है। क्या तुम बता सकते हो वह कछुवा क्या पसंद करता? मर कर सोने की वेदी पर पूजा जाना या जीवित रह कर कीचड में दुम हिलाना?”
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सिपाही तपाक से बोला - “बेशक, जीवित रह कर कीचड में दुम हिलाना।”
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ये सुनते ही 'चुआंग जू' महोदय दहाडे - “तो दफा हो जाओ यहाँ से... मुझे भी जीवित रह कर कीचड में दुम हिलाना पसंद है।”
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“मित्रों ! ये कहानी मैंने सालों पहले किसी किताब में पढी थी। और ये मेरी पसंद की चंद कहानियों में से एक है। इस कहानी का सार यह है कि पद कितना भी उँचा हो, दौलत-शोहरत कितनी भी ज्यादा हो वास्तव में ये सब व्यक्ति के सहज-सरल व्यक्तित्व और जीवन की समानता नहीं कर सकते। सो इन्हें इतनी ही तवज्जो दीजिए जितने से ये आपके स्वाभाविक जीवन को नष्ट ही न कर दें। 
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अगर आपको लगता है कि ये आपके लिए ना होकर आप इनके लिए हो कर रह गए हैं तो इन्हें ‘ना’ कहने की हिम्मत भी रखें। कहने का अर्थ ये कि दौलत-शोहरत-पद इतने कीमती नहीं है कि इन्हें जीवन पर बोझ की तरह लाद लिया जाए। बेशक जीवन को सुचारु रूप से चलाने के लिए सम्पत्ति का महत्व है, पर जीवन में शाँति और वास्तविक सुख के लिए सँतोष का महत्व भी कम नहीं है। 
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आत्मा पर बोझ बन जाए और मन को किसी अन्य के अधीन करना पडे ऐसा पद ऐसी सम्पत्ति किस काम की..? अर्थात पद या सम्पत्ति भी वही उत्तम है जिसमे आत्मा की हत्या न करनी पडे...मन को किसी अन्य के अधीनता न करनी हो। और आत्मविकास का द्वार खुला रहे।

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