सोमवार, 5 जून 2017

श्री गुरूदेव का अंग ३(३३-६)


卐 सत्यराम सा 卐
*भाई रे, भानै घड़ै गुरु मेरा,* 
*मैं सेवक उस केरा ॥ टेक ॥*
*कंचन कर ले काया,* 
*घड़ घड़ घाट निपाया ॥ १ ॥*
*मुख दर्पण मांहि दिखावै,* 
*पीव प्रकट आन मिलावै ॥ २ ॥*
*सतगुरु साचा धोवै,* 
*तो बहुरि न मैला होवै ॥ ३ ॥*
*तन मन फेरि सँवारै,* 
*दादू कर गहि तारै ॥ ४ ॥*
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साभार विद्युत् संस्करण ~ Mahant Ramgopal Das Tapasvi
**श्री रज्जबवाणी**
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
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**श्री गुरूदेव का अंग ३**
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ब्रह्मांड पिंड की एक गति, पावे खोजी प्रान । 
उभय ठौर सब अंश हैं, समझावे गुरु ज्ञान ॥३३ ॥
ब्रह्माड और पिंड का स्वरूप एक जैसा ही है किन्तु उसे विचारशील प्राणी ही समझ पाता है । दोनों ही स्थानों के सभी भाग समान हैं इस बात को भली भाँती गुरु देव का ज्ञान ही समझा पाता है ।

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विविध भाँति बूटी व्यथा, वैद्य सु जाने भेव ।
त्यों आशंका अनन्त विधि, समझावें गुरु देव ॥ ३४ ॥
नाना प्रकार की बुटीयें और रोग होते हैं, बूटियों के गुण - रहस्य और आकारों को तथा रोगों की विभिन्नता, निदान, उपद्रवादि के रहस्य को सम्यक् प्रकार से वैद्य ही जान पाता है, वैसे ही नाना प्रकार की शंकाओं के समाधान कर के गुरुदेव ही प्राणियों को अध्यात्म विषय समझाते हैं ।
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रज्जब अग्नि अनन्त हैं, एक आतमा माँहि । 
सद्गुरु शीतल सर्व विधि, बहु वह्नि बुझ जाँहि ॥३५ ॥
एक ही अन्त:करण में क्रोधाग्नि, कामाग्नि आदि बहुत प्रकार की अग्नियें हैं किन्तु सद्गुरु का अन्त:करण उक्त सभी अग्नियों से रहित होने से सद्गुरु सर्वथा शीतल हैं अत: उनके उपदेशानुसार साधन करने से उक्त सभी अग्नियें शांत हो जाती हैं । 
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सद्गुरु बिन संदेह को, रज्जब भाने कौन । 
सकल लोक फिर देखिया, निरखे तीनों भौन ॥३६ ॥
संपूर्ण लोकों में घूमकर देखा है तथा तीनों भुवनों को विचार द्वारा भी देखा है, उनमें साधक के ब्रह्म-आत्म विषयक संशय को नष्ट कर सके ऐसा सद्गुरु बिना कोई भी नहीं है ।
(क्रमशः)

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