सोमवार, 31 जुलाई 2017

श्री गुरुदेव का अंग ३(१६१-६४)


卐 सत्यराम सा 卐
*सतगुरु शब्द मुख सौं कह्या, क्या नेड़े क्या दूर ।*
*दादू सिष श्रवणहुँ सुण्या, सुमिरण लागा सूर ॥* 
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**श्री रज्जबवाणी** 
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
साभार विद्युत् संस्करण ~ Mahant Ramgopal Das Tapasvi 
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**श्री गुरुदेव का अंग ३**
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गुरु गंगा ठौर हि रहे, शब्द सलिल ले जाँहिं । 
जन रज्जब जग भाव यह, मन मल मंज हि माँहिं ॥१६१ ॥ 
१६१-१६३ गुरु की स्थिरता तथा अपरिवर्तन स्थिति का परिचय दे रहे हैं - जैसे गंगाजी अपने स्थान पर ही रहती हैं किन्तु संसार के भावुक जन भाव पूर्वक जल को ले जाते हैं और आचमन से ही अपने को पवित्र मानते हैं । वैसे ही गुरु तो अपने स्थान पर ही रहते हैं किन्तु उनके शब्द साधक लोक ले जाते हैं और उनको सुनने वाले लोग भी उनके द्वारा अपने मन के भीतर का मल दूर करते हैं । जगत् में यह भावना प्रसिद्ध ही है । 
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प्राण पत्र गुरु तरु तजहिं, विपद् वात की घात ।
सो रज्जब नौ खण्ड में, और न जाति कहात ॥१६२॥
वायु के आघात से निम्ब वृक्ष अपने पत्तों को त्याग देता है, फिर भी निम्ब वृक्ष ही कहलाता है, किसी अन्य जाति का वृक्ष नहीं । वैसे ही किसी कष्ट के आघात से गुरु भी अपने प्राण को तो त्याग देते हैं, फिर भी वे पृथ्वी के नौओं खण्डों में अपनी वाणी के द्वारा गुरु ही कहलाते हैं, खल नहीं ।
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चीनी चूड़ी ठीकरी, चौथे आतम अंग ।
रज्जब रे जे रज रले, पै पलट्या रूप न रंग ॥१६३॥
चीनी मिट्टी के बर्तन के टुकड़े, चूड़ी, ठीकरी, ये चाहे रेते में मिल जाँय तो भी अपने रंग-रूप में ही रहते हैं, बदलते नहीं और चौथा आत्मा स्वरूप देहादि के साथ मिला हुआ रहने पर भी देहादि से नहीं मिलता । वैसे ही गुरु का अन्त:करण विषय राग रूप परिवर्तन को प्राप्त नहीं होता । 
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षड् दशर्न के गुरु हुँ का, आदि गुरु गोविन्द ।
सो रज्जब समझे नहीं, तो सभी जीव मति मंद ॥१६४॥ 
१६४ में आदि गुरु का परिचय दे रहे हैं - जोगी, जंगम, सेवड़े, बौद्ध, सन्यासी और शेख इन ६ प्रकार के भेषधारियों के गुरुओं के आदि गुरु परमात्मा हैं, उन परमात्मा का यथार्थ स्वरूप न समझे तब तक सभी जीव मन्द बुध्दि माने जाते हैं ।
(क्रमशः)

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