सोमवार, 31 जुलाई 2017

= बावनी(ग्रन्थ १३/१५-६) =

🌷🙏🇮🇳 *#daduji* 🇮🇳🙏🌷
🙏 *श्री दादूदयालवे नमः ॥* 🙏
🌷 *#श्रीसुन्दर०ग्रंथावली* 🌷
रचियता ~ *स्वामी सुन्दरदासजी महाराज*
संपादक, संशोधक तथा अनुवादक ~ स्वामी द्वारिकादासशास्त्री
साभार ~ श्री दादूदयालु शोध संस्थान
अध्यक्ष ~ गुरुवर्य महमंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमारामजी महाराज
https://www.facebook.com/DADUVANI
.
*= बावनी(ग्रन्थ १३) =*
.
*ऊँच नीच सम देखे दोऊ,*
*ऊरा पूरा है नहि कोऊ ।*
*ऊपर तरे एक पहिचाने,*
*उवाबाई जगतहिं जाने ॥१५॥*
*(ऊ)* इस संसार में कोई धनादिक से श्रेष्ठ(ऊँचा) है, कोई हीन(नीचा) है, साधक को इन दोनों में ही समान भाव(ईर्ष्या, द्वेष को छोड़कर) रखना चाहिये । क्योंकि समीक्षा करने पर उसके समझ में आ जायगा कि इस संसार में न कोई अधूरा(अपूर्ण) है, न कोई पूर्ण है(अथवा यह जगत् ब्रह्ममय है और ब्रह्म को न अपूर्ण कह सकते हैं, न पूर्ण) अतः उस जगत् को ब्रह्ममय जानकार ऊपर से नीचे तक सर्वत्र सभी को सामान समझना चाहिये । हाँ, परमार्थ में जगत् को व्यर्थ(निस्तथ्य) अवश्य समझे रखना चाहिये ॥१५॥
.
*एकै ब्रह्म अनेक दिखावै,*
*एकाकी हूये तिन पाये ।*
*ए मेरे ये तेरे कीये,*
*एहि अंतर इन करि लीये ॥१६॥* 
*(ए)* ब्रह्म(परमात्मा) एक है, सर्वव्यापक है, वही जीव-भेद से अनेक प्रकार का होकर दिखायी देता है । इस लिये जो तथ्य को समझता हुआ संसार से अलिप्त रह कर एकाकी(=अकेला, विरक्त) होकर साधना करता है, वही इस ब्रह्म को पा सकता है । जिसने इस संसार में लिप्त होकर 'मेरे' 'तेरे' का भेद भाव मन में संजो लिया तो यह भेदभाव ही उस प्राणी को ले डूबेगा । (वह कभी मुक्त नहीं हो सकता) ॥१६॥
(क्रमशः)

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें