卐 सत्यराम सा 卐
*आत्मराम विचार कर, घट घट देव दयाल ।*
*दादू सब संतोंषिये, सब जीवों प्रतिपाल ॥*
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साभार ~ ऊँ नारायण
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ॐ हरि शरणम्
जो सुख लेता है, वह साधक नहीं होता, प्रत्युत भोगी होता है । भोगी का पतन होता है । भोगी रोगी होता है । भोगी में जड़ता आती है । भोगी पराधीन होता है । अतः जो लेता है, वह भोगी है और जो देता है, वह योगी है ।
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भगवान् से बढ़कर और कोई नहीं है; क्योंकि वे देते-ही-देते हैं । इतना ही नहीं, उन्होंने अपने-आप को सब को सर्वथा सर्वदा समानरूप से दे रखा है‒‘सर्वस्य चाहं हृदि संनिविष्टः’(गीता १५ । १५) । उनमें कोई कमी है नहीं, हुई नहीं, होगी नहीं, हो सकती नहीं, पर भक्त की प्रसन्नता के लिये वे लेते हैं । गोपियों की प्रसन्नता के लिये ही वे उनका मक्खन लेते हैं । अतः साधक को केवल देने-ही-देने का भाव रखना चाहिये कि सबको सुख कैसे हो ? सबको आराम कैसे हो ? सबका भला कैसे हो ? सबका कल्याण कैसे हो ? सब सुखी कैसे हों ? सबको प्रसन्नता कैसे हो ? ऐसे भावों से दुनियामात्र की सेवा होती है । यद्यपि भाव साधारण दीखता है और क्रिया बड़ी दीखती है, तथापि वास्तव में भाव बहुत श्रेष्ठ है और क्रिया बहुत छोटी है । लाखों-करोड़ों रुपये लगा दें तो भी वह सीमित ही होगा, पर सेवाका भाव असीम होगा । असीम से असीम(परमात्मा) की प्राप्ति होती है । सीमित से असीमकी प्राप्ति नहीं होती ।
कर्मयोग में सेवा मुख्य है । कर्मयोग से केवल मलदोष ही नहीं मिटता, प्रत्युत मल, विक्षेप और आवरण‒सभी दोष सर्वथा मिट जाते हैं और तत्वज्ञान हो जाता है । वही सेवा अगर भगवान्की पूजा समझकर की जाय तो भक्ति प्राप्त हो जाती है । यद्यपि ज्ञान और भक्तिमें कोई छोटा-बड़ा नहीं है, तथापि भक्तिमें प्रेमका एक विशेष रस, विशेष आनन्द है । हाँ, ज्ञानमें भी विशेषताका अभाव नहीं है, पर उसमें प्रेम छिपा हुआ है, जबकि भक्तिमें प्रेम प्रकट है ।
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लेनेसे वस्तुका नाश और अपना पतन होता है । भोगी मनुष्य भोजन लेता है तो भोजन का नाश और अपना पतन करता है । अपने को भोजन के अधीन स्वीकार किया, भोजन को अधिक महत्व देकर अपनी महत्ता कम कर ली‒यही अपना पतन है । भोजन से अपनी भूख का, खाने की शक्ति का नाश होता है । भोजन कर नहीं सकते‒इस असामर्थ्य को ही तृप्ति कह देते हैं ! इसी तरह कपड़ा लेनेवाला कपड़े का नाश करता है, मान-बड़ाई लेनेवाला मान-बड़ाई का नाश करतो है, आदर लेनेवाला आदर का नाश करता है और अपना पतन करता है । परन्तु देनेवाला दूसरे की सेवा करता है, वस्तु को सार्थक करता है और अपना उत्थान करता है । देनेवाला मनुष्य ऊँचा उठ ही जाता है, नीचा नहीं रहता । लेनेवाला नीचा रहता है । देनेवाले का हाथ ऊँचा रहता है और लेनेवाले का हाथ नीचा रहता है ।
श्रद्धेय श्री स्वामी रामसुखदास जी महाराज
‒‘सत्संग मुक्ताहार’ पुस्तक से
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