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卐 सत्यराम सा 卐
*दादू सांई सतगुरु सेविये, भक्ति मुक्ति फल होइ ।*
*अमर अभय पद पाइये, काल न लागै कोइ ॥*
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**श्री रज्जबवाणी**
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
साभार विद्युत् संस्करण ~ Mahant Ramgopal Das Tapasvi
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**गुरु-शिष्य निदान निर्णय का अंग ५**
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रज्जब काचा सूत शिष, लिपट्या सद्गुरु हाथ ।
काल कसौटी देय दिव्य, जले न साँचे साथ ॥५॥
पूर्वकाल में कच्चा सूत हथेली पर लिपेट के उस पर दिव्य(न्यायालय की सत्यासत्य परीक्षार्थ हाथ पर रक्खा जाने वाला लोह का गोला) रखते थे । तब सच्चे का हाथ नहीं जलता था और झूठे का हाथ जल जाता था । वैसे ही सच्चे सद्गुरु के संग रहने से शिष्य काल-दंड रूप परीक्षा से व्यथित नहीं होता ।
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महापुरुष मुहुरे बँधे, तालिब काचे तार ।
रज्जब जल हि न युगल वे, अन्तक अग्नि मझार ॥६॥
जैसे मोहरे(मोर पंखों से निकले हुये तामे के मणिये) में कच्चा तार बँधा हो तो, वह अग्नि में नहीं जलता वैसे ही महापुरुष सद्गुरु की शरण में जाने पर शिष्य कालाग्नि में नहीं जलता ।
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कोयल अंडे काक गृह, सुत निपजे पर सेव ।
त्यों रज्जब शिष भव को, प्रति पाले गुरु देव ॥७॥
७ में गुरु से ही शिष्य की रक्षा होती है यह कहते हैं - कोयल के अंडे काक के घर में रहते हैं और अपने अन्य काकों की सेवा से बड़े होते हैं किन्तु कोयल उनका भाव से ही पालन करती है और बड़े होने पर ले जाती है, वैसे ही शिष्य संसार में रहते हैं किन्तु गुरु उनका भाव से पालन करते हैं और वैराग्य होने पर ले जाते हैं । कोयल अपने अंडे काक से आलम में छोड़ आती है । काक उनको अपना जान कर पालते हैं कुछ बड़े होने पर कोयल उनके पास जाकर अपनी बोली सुनाती है और जब वे उड़ने लगते हैं तब काक के न होने के समय उन्हें साथ ले जाती है ।
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गुरु संतोषी चन्द्र मय, शिष नक्षत्र निरीहाय१ ।
जन रज्जब तिहिं सभा को, देख दृष्टि बलि जाय ॥८॥
८ में योग्य गुरु शिष्य धन्य हैं, यह कह रहे हैं - जैसे बिना ही इच्छा चन्द्रमा को नक्षत्र मंडल घेरे रहता है, वैसे ही संतोषी गुरु को विरक्त१ शिष्य घेरे रहते हैं, उनकी सभा का दर्शन करके दृष्टि उन पर बलिहारी जाती है ।
(क्रमशः)
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