卐 सत्यराम सा 卐
*करै करावै सांइयाँ, जिन दिया औजूद ।*
*दादू बन्दा बीच में, शोभा को मौजूद ॥*
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साभार ~ Nishi Dureja
बोकोजू से किसी ने और एक बार पूछा कि जब तुम ज्ञान को उपलब्ध न हुए थे, तब तुम्हारी जीवन—चर्या क्या थी? तो उसने कहा कि तब मैं गुरु के आश्रम में रहता था; जंगल से लकड़ियां काटता था और कुएं से पानी भर कर लाता था। फिर उसने पूछा, अब? अब जब कि तुम स्वयं गुरु हो गये और तुम ज्ञान को उपलब्ध हो गये—तुम्हारी जीवन—चर्या क्या है?
बोकोजू ने कहा, वही, जंगल से लकड़ी काट कर लाता हूं; कुएं से पानी भर कर लाता हूं। उस आदमी ने कहा हद हो गयी! फिर फर्क क्या हुआ? बोकोजू ने कहा : फर्क भीतर हुआ है, बाहर नहीं हुआ। फर्क मुझे पता है या मेरे गुरु को पता है। काम में फर्क नहीं हुआ है। ध्यान में फर्क हुआ है। कृत्य तो वैसा का वैसा ही है। लकड़ी अब भी काट कर लाता हूं लेकिन अब मैं कर्ता नहीं हूं। पानी अब भी भर कर लाता हूं, लेकिन अब मैं कर्ता नहीं हूं। मैं साक्षी ही बना रहता हूं। कृत्य चलते चले जाते हैं। कृत्यों के पार एक नये भाव और एक नये बोध का उदय हुआ है। एक नया सूरज चमका है!
सहज के सूत्र को पकड़ कर चलते रहो, मोक्ष दूर नहीं है। सहज के सूत्र को पकड़ कर चलते रहो, समाधि दूर नहीं है। साधो, सहज समाधि भली !
वह जो कबीर ने सहज समाधि कही है, उसकी ही बात जनक कह रहे हैं, अपने गुरु के सामने निवेदन कर रहे हैं। वे कह रहे हैं कि समझ गया। आप मुझे उकसाओ, उकसा न सकोगे। क्योंकि बात सच्ची घट गयी है, मुझे दिखायी ही पड़ गया। अब आप लाख इधर—उधर से घुमाओ, आप मुझे धोखे में न डाल सकोगे। अब तो मुझे दिख गया कि मैं साक्षी हूं और जो स्फुरणा से होता है, होता है। न तो मैं उसे रोकने वाला, न मैं उसे लाने वाला। मेरा कुछ लेना—देना नहीं है। मैं दूर खडा हो गया हूं। भूख लगती है, खा लूंगा। नींद आ जायेगी, सो जाऊंगा।
जय हो
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