शुक्रवार, 29 सितंबर 2017

= ७३ =

卐 सत्यराम सा 卐
*दादू नैनहुँ आगे देखिये, आत्म अंतर सोइ ।*
*तेज पुंज सब भरि रह्या, झिलमिल झिलमिल होइ ॥* 
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साभार ~ Chetna Kanchan Bhagat

इस मन का कष्ट क्या है? इस मन की समस्या क्या है?
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पहली बात, वह यह, हमारे भीतर जो यह आकांक्षा और दौड़ होती है कि हम भर लें अपने को, संतुष्टि की, पूर्णता की, पा लेने की, कुछ हो जाने की, यह दौड़ इसलिए पैदा होती है कि हमें अहसास होता है कि भीतर हम खाली हैं, भीतर अभाव है, भीतर खालीपन है, भीतर कुछ भी नहीं है। भीतर मालूम होता है ना कुछ, भीतर मालूम होता है शून्य, उस शून्य को भरने के लिए हम दौड़ते हैं, दौड़ते हैं, दौड़ते हैं।
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लेकिन क्या आपको पता है कि जो शून्य भीतर है, उसे बाहर की कितनी ही सामग्री से भरना असंभव है ! क्योंकि शून्य है भीतर और हमारे साम्राज्य होंगे बाहर, साम्राज्य बढ़ते चले जाएंगे, शून्य अपनी जगह बना रहेगा। इसीलिए तो सिकंदर खाली हाथ मरता है। नहीं तो सिकंदर के हाथ में तो बड़ा साम्राज्य था, बड़ी धन—दौलत थी। शायद ही किसी आदमी कै पास इतना बड़ा साम्राज्य रहा हो, इतनी धन—दौलत रही हो। खाली हाथ क्यों मरता है यह आदमी? यह खाली हाथ किस बात की सूचना है? यह सूचना है कि भीतर जो खालीपन है वह नहीं भरा जा सका। बाहर सब इकट्ठा हो गया; लेकिन नहीं, भीतर कुछ भी नहीं पहुंच सका। कौन सी चीज भीतर पहुंच सकती है?
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बाहर की कोई भी चीज भीतर नहीं पहुंच सकती। बाहर के मित्र बाहर हैं, बाहर की संपदा बाहर है, बाहर का धन, बाहर की यश प्रतिष्ठा, सब बाहर है। और भीतर हूं मैं। मेरे अतिरिक्त मेरे भीतर कोई भी नहीं। मेरा होना ही मेरा भीतर है। मेरा बीइंग ही मेरा, मेरा आंतरिक शून्य है, मेरी आंतरिक रिक्तता है। भीतर मैं हूं खाली, बाहर मैं दौड़ता हूं कि भरूं, भरूं। बहुत इकट्ठा कर लेते हैं दौड़ कर। लेकिन जब आंख उठा कर देखते हैं तो पाते हैं भीतर तो सब खाली है, दौड़ तो व्यर्थ गई।
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इसलिए नहीं है उपाय कि भीतर है शून्य, बाहर है सामग्री। फिर हम क्या करें? इस भीतर के शून्य को कैसे भरें? कैसे हमें अहसास हो जाए कि अब मेरी कोई मांग नहीं?
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उसी दिन आदमी जीवन में कहीं पहुंचता है जिस दिन उसकी कोई मांग नहीं रह जाती, जिस दिन उसका भिखारी मर जाता है। धर्म प्रत्येक मनुष्य को ऐसी जगह ले जाना चाहता है जहां वह सम्राट हो जाए। दिखता तो ऐसा है कि संसार में सम्राट होते हैं, लेकिन जो जानते हैं वे कहेंगे, संसार में कभी कोई सम्राट नहीं हुआ, सभी भिखारी हैं। यह दूसरी बात है कि कुछ भिखारी छोटे हैं, कुछ भिखारी बड़े हैं; यह दूसरी बात है कि किन्हीं का भिक्षापात्र छोटा है, किन्हीं का बड़ा है; यह दूसरी बात है कि कुछ रोटी मांगते हैं, कोई राज्य मांगता है। लेकिन मांगने के संबंध में कोई भिन्नता नहीं, भिखमंगेपन में कोई भेद नहीं।
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धर्म तो समझता है कि केवल वे ही लोग सम्राट हो सकते हैं जो भीतर एक आंतरिक संपूर्णता को उपलब्ध होते हैं। उनकी सारी मांग मिट जाती है। उनकी दौड़, उनके भिक्षा का पात्र टूट जाता है।
जीवन रहस्य ~ ओशो

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