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卐 सत्यराम सा 卐
*श्री दादू अनुभव वाणी*
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
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*साँच का अंग १३*
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*भ्रम विध्वँसन *
कुछ नाँहीं का नाम क्या,
जे धरिये सो झूठ ।
सुर नर मुनि जन बँधिया,
लोका आवट२ कूट१॥१३०॥
१२८ - १३१ में लोगों का भ्रम दूर कर रहे हैं - जिस
परब्रह्म में नाम, रूप,
गुण, क्रियादि कुछ भी नहीं है, उसका जो भी नाम धरेंगे अथवा माया कृत मिथ्या आकारों को उसका स्वरूप मान कर
उसमें गुण क्रियादि का आरोप करेंगे, वह सब मिथ्या ही होगा
किन्तु फिर भी सुर, नर, मुनिजनादि अपने
स्वरूप परब्रह्म को भूलकर, माया कृत मिथ्या१ नाम रूपादि के
आग्रह में बद्ध होकर ऊंचे नीचे लोक - रूप मिथ्या प्रपँच में घटी - यँत्र के समान
चक्कर२ लगा रहे हैं ।
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कुछ नाहीं का नाम धर,
भरम्या सब सँसार ।
सांच झूठ समझे नहीं,
ना कुछ किया विचार ॥१३१॥
जिस परब्रह्म में नाम,
रूप, गुण, क्रियादि कुछ
भी नहीं बनते, मायिक पदार्थों से उसके मिथ्या आकार बना कर,
उनमें नाम, रूप, गुण,
क्रियादि का आरोप करके, सब सँसार के प्राणी
भ्रम में पड़ रहे हैं । सत्य और मिथ्या को समझते नहीं, कारण,
समझने के लिये सत्पुरुषों के पास बैठ कर कुछ विचार किया ही नहीं,
फिर कैसे समझैं ?
दादू केई दौड़े द्वारिका,
केई काशी जाँहिं ।
केई मथुरा को चले,
साहिब घट ही माँहिं ॥१३२॥
परब्रह्म तो आत्म रूप से हृदय में ही स्थित है किन्तु
बहिर्मुख प्राणी उसके दर्शनार्थ कितने ही द्वारिका,
कितने ही काशी और कितने ही मथुरा को जाते हैं ।
(क्रमशः)

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