शनिवार, 23 सितंबर 2017

= साँच का अंग =(१३/१३३-५)

#daduji


卐 सत्यराम सा 卐
*श्री दादू अनुभव वाणी* 
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
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*साँच का अंग १३*
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ऊपरि आलम१ सब करैं, साधू जन घट माँहिं ।
दादू एता अंतरा, तातैं बनती नाँहिं ॥१३३॥
ऊपर से माला - तिलकादिक चि - और बाह्य - पूजा दिखावे के लिये तो सँसार१ के सभी जन करते हैं किन्तु सँतजन तो अपने हृदय में ही भगवद् आराधना करते हैं । सँसारी - जन और सँतजन की साधना में, इतना ही भेद रहता है । इसीलिये दोनों की साधना में एकता नहीं बनती ।
दादू सब था एक के, सो एक न जाना ।
जने जने का ह्वै गया, यहु जगत दिवाना ॥१३४॥
सँसार के सभी प्राणी परमात्मा के अँश होने से उसी के था, किन्तु उस अपने अद्वैत स्वरूप को न जानकर, अनेक देवी - देवतादि के पूजक बन गये हैं । इससे ज्ञात होता है - यह जगत् पागल है ।
सांच
झूठा सांचा कर लिया, विष अमृत जाना ।
दुख को सुख सब को कहै, ऐसा जगत दिवाना ॥१३५॥
१३३ - १४७ में सत्य का विशेष विचार कर रहे हैं - जगत् के प्राणी सत्य को न पहचान कर, ऐसे पागल हो रहे हैं - देहादिक मिथ्या सँसार को सत्य मान लिया है, विषय - विष को अमृत मान बैठे हैं और दु:खप्रद बिन्दु - पतनादि क्रियाओं को भी सभी सुख रूप बताते हैं ।
(क्रमशः)

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