रविवार, 24 सितंबर 2017

आज्ञाकारी का अंग ८(९-१२)

#daduji
卐 सत्यराम सा 卐
*आज्ञा मांहैं बैसै ऊठै, आज्ञा आवै जाइ ।*
*आज्ञा मांहैं लेवै देवै, आज्ञा पहरै खाइ ॥*
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**श्री रज्जबवाणी**
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
साभार विद्युत् संस्करण ~ Mahant Ramgopal Das Tapasvi
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**आज्ञाकारी का अंग ८** 
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नाम मिठाई विविध परि, जहाँ भरे हृद१ हाट ।
रज्जब मिल हिं उडाव तौं, मानुष माँखी ठाट२ ॥९॥
नाना प्रकार की मिठाई पड़ी रहने से हाट में मक्खियाँ उडाने पर भी आती हैं । वैसे ही ईश्वर आज्ञाकारी गुरु के हृदय१ में भगवान के नाना नाम-गुण भरे रहने से गुरु के पास मनुष्यों का समूह२ रहता है, वे हटाने से भी नहीं हटते ।
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रज्जब आज्ञा में ऊभा रहै, आज्ञा बैठे आय ।
आज्ञा में आडा हुआ, आज्ञा ऊठे जाय ॥१०॥
आज्ञाकारी आज्ञानुसार ही उठता है, बैठता है, आता है जाता है, आडा होता है, खड़ा रहता है, सभी व्यवहार आज्ञानुसार करता है ।
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आज्ञा में पति व्रत रहै, आज्ञा में धर्म नेम ।
रज्जब आज्ञा उर चढे, आज्ञा कुशल रु क्षेम ॥११॥
गुरु-गोविन्द की आज्ञा में रहने से ही पतिव्रत धर्म वर्ण धर्म, आश्रम धर्म और साधन नियमों का पालन होता है । जब गुरु-गोविन्द की आज्ञा हृदय में जम जाती है तब उस आज्ञा द्वारा सदा आनन्द मंगल ही रहता है ।
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आज्ञा में आतम अरथ१, आज्ञा ऊरण२ होय ।
आज्ञा चले सु उद्धरे, साध कहैं सब कोय ॥१२॥
गुरु-गोविन्द की आज्ञा में चलने से ही आत्म-धन१ प्राप्त होता है, सब प्रकार के ऋणों से मुक्त२ होता है संसार से पार होकर परब्रह्म को प्राप्त होता है, ऐसा सब संत कहते हैं ।
(क्रमशः)

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