卐 सत्यराम सा 卐
*तन नहिं तेरा धन नहिं तेरा,*
*कहा रह्यो इहि लाग ।*
*दादू हरि बिन क्यों सुख सोवे,*
*काहे न देखे जाग ॥*
===================
साभार ~ oshoganga.blogspot.com
मोक्ष कोई ऐसी उपलब्धि नहीं है जो पाने को है, संसार जरूर खोने को है; लेकिन मोक्ष पाने को नहीं है।
.
मनुष्य यदि संसार छोड़ने को राजी हो जावे, तो मोक्ष मिला ही हुआ है। मुक्त मनुष्य है ही, बड़ी तरकीब से स्वयं बंधन में पड़ा हुआ है। किसी ने मनुष्य को नहीं पकड़ा है, इसमें भला किसको रस आएगा; इस जगत की भी कोई उत्सुकता नहीं है, प्रयोजन भी क्या है? मनुष्य को पकड़ रखने से जगत को मिलेगा भी क्या? मनुष्य पकड़ा गया है, स्वयं के ही द्वारा।
.
कुछ भ्रांतियां है, जो भ्रम उत्पन्न करती हैं कि मनुष्य पकड़ा गया है। सबसे बड़ी भ्रान्ति यह है कि प्रत्येक मनुष्य स्वयं को मूल्यवान समझता है। यह भी अहंकार ही है कि सारे दुःख मेरी तरफ चले आ रहे हैं। इतने दुःख ! इतना ध्यान है ! जैसे सारे नर्क मनुष्य के लिए ही निर्मित किये गए हों। मनुष्य के लिए ! मनुष्य केंद्र में है ! और सारे जगत की व्यवस्था मनुष्य के लिए चल रही हो। ये भ्रान्ति होने का कारण भी है।
.
मनुष्य के जन्म लेते क्षण ही दुर्घटनाएं हो जाती हैं। अनिवार्य हैं, इसीलिये घट जाती हैं। मनुष्य का बच्चा एकदम असहाय पैदा होता है। इसीलिये बच्चे के प्रति अत्यधिक ध्यान देना होता है माता-पिता को। उस ध्यान के कारण बच्चे को लगता है कि मैं जगत का केंद्र हूं, सारी दुनिया मेरे आस-पास घूम रही है। जरा सा रोता है और मां भागी आती है ! जरा बीमार हुआ कि पिता डॉक्टर को लिए खड़ा है। छोटे बच्चे को लगता है कि मेरे इशारे पर सब चल रहा है।
.
जरा सी आवाज, जरा सा रोना, जरा सा दुःख, सारा घर उसके आस-पास इकट्ठा हो जाता है। बच्चे के लिए घर ही सारी दुनिया है, और किसी दुनिया का उसे पता नहीं है। बच्चे के मन में एक सहज भ्रम जन्म ले लेता है कि मैं केंद्र हूं जगत का, मेरे लिए ही सब आयोजन हैं। ये भ्रान्ति गहरे बैठ जाती है।

कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें