卐 सत्यराम सा 卐
*तहँ सहज रहै सो स्वामी, सब घट अंतरजामी ।*
*सकल निरन्तर वासा, रट दादू संगम पासा ॥*
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साभार ~ oshoganga.blogspot.com
क्रिया का नाश हो जाये, अर्थात कर्ता खो जाये, तो चिंता का नाश हो जाता है। इससे भी गहरा दूसरा रहस्य है। *'और चिंता का नाश होने से वासना का नाश होता है।' साधारणतः तो ऐसा ही कहा जाता है कि वासना न रहे तो चिता नहीं रह जाती। लेकिन यह सूत्र क्यों इंगित कर रहा है कि चिंता का नाश हो तो वासना का नाश हो जाता है?
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मनुष्य यदि निश्चिन्त हो जाये तो वासना क्षीण हो जायेगी। यदि एकदम निश्चिन्त हो जाये तो चित्त वासना की तरफ दौड़ेगा ही नहीं। क्योंकि वासना केवल एक अनिवार्यता है, जब मनुष्य के भीतर सीमा के परे तूफान उठ जाता है; तब उस तूफान को निष्कासित करने का, यदि तूफान उठता ही नहीं तो वासना क्षीण हो जाती है। लेकिन ऊर्जा क्षीण नहीं हो जाती, वासना क्षीण हो जाती है; ऊर्जा इकट्ठी होती जाती है। और एक सीमा के पश्चात् प्रत्येक चीज रूपांतरित हो जाती है।
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ध्यान दें, मनुष्य जब कभी ज्यादा चिंतित होता है तो ज्यादा वासनाग्रस्त होता है। जब मन में ज्यादा परेशानी होती है, चिंता बहुत हो जाती है; उसको सहना मुश्किल हो जाता है, इतनी शक्ति भीतर दौड़ने लगती है कि मनुष्य बेचैन हो जाता है। तब शरीर उस शक्ति को बाहर फेंकने का उपाय खोज लेता है। तब जरूरत है। या तो मनुष्य साक्षी हो जाये, या दूसरा उपाय है कि शक्ति शरीर के बाहर चली जाये; क्योंकि उपद्रव के लिए शक्ति चाहिए। साक्षित्व अत्यंत कठिन है।
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इसलिए मनुष्य जब भी चिंताग्रस्त होता है-दुःख से, पीड़ा से-तो चित्त में वासना का उदय होता है। जब चिंता होती है चित्त पर भारी, तो चित्त वासना की तरफ दौड़ पड़ता है। इसलिए *'चिंता के नाश होने से वासना का नाश होता है।' 'वासना-नाश मोक्ष है।'* जब कोई वासना नहीं है तो मनुष्य मुक्त है।

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