गुरुवार, 12 अक्टूबर 2017

= भेष का अंग =(१४/१०-२)

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卐 सत्यराम सा 卐
*श्री दादू अनुभव वाणी* 
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
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*भेष का अँग १४*
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दादू जे तूँ समझे तो कहूं, सांचा एक अलेख ।
डाल पान तज मूलगह, क्या दिखलावे भेख ॥१०॥ 
हे भेष प्रिय व्यक्ति ! अपना सुन्दर भेष क्या दिखलाता है ? इसके परमार्थ में कुछ भी लाभ नहीं है । यदि तू समझना चाहे तो मैं कहता हूं - सत्य तो एक परब्रह्म ही है । ब्रह्मादि त्रिदेव शाखा और इन्द्रादि देव पत्तों के समान हैं, सबके मूल परब्रह्म की ही आराधना ग्रहण कर । 
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दादू सब दिखलावैं आपको, नाना भेष बनाइ । 
जहं आपा मेटन हरि भजन, तिहिं दिशि कोइ न जाइ ॥११॥ 
नाना भेष बनाकर सब लोग अपने सँप्रदायादि के अभिमान को ही प्रकट रूप से दिखाते हैं किन्तु जो सब प्रकार के अभिमान को नष्ट करके भगवद् - भजन करने को निष्कपट निराभिमान अवस्था रूप दिशा है, उसकी ओर आगे कोई नहीं बढ़ता । 
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सो दशा कतहूं रही, जिहिं दिशि पहुंचे साध । 
मैं तैं मूरख गह रहे, लोभ बड़ाई वाद ॥१२॥
सँतजन साधना द्वारा जिस अद्वैत अवस्था को प्राप्त हुये हैं, वह अवस्था तो इन भेष प्रिय मूर्ख लोगों से अत्यधिक दूर ही रही है, ये तो "मैं - तू" आदि द्वैत को ग्रहण करके लोभ, बड़ाई और विवाद में ही फंस रहे हैं ।
(क्रमशः)

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