सोमवार, 9 अक्टूबर 2017

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卐 सत्यराम सा 卐
दादू कासौं कहि समझाइये, सब कोई चतुर सुजान ।
कीड़ी कुंजर आदि दे, नाहिंन कोई अजान ॥ 
टीका - हे जिज्ञासुओं ! किस को कहकर क्या समझाइये ? सब ही प्राणी चीटीं से लेकर हाथी तक माया - मोह के वश में हुए अपने को अपने - अपने व्यवहार में कुशल मानते हैं और अन्य से अपने को अधिक ज्ञानी समझते हैं । रंक से राजा पर्यन्त अपने आप को अज्ञानी कोई भी नहीं समझता है ॥ 
सबै सयाने हैं ‘जगन’, अपनी बुधि उनमांन । 
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*करुणा*
कहतां सुनतां दिन गये, ह्वै कछू न आवा ।
दादू हरि की भक्ति बिन, प्राणी पछतावा ॥ 
टीका - ब्रह्मऋषि सतगुरुदेव कहते हैं कि हे परमेश्‍वर ! हे नाथ ! सम्पूर्ण आयु आपकी भक्ति बिना निष्फल ही जा रही है । आप दया करके आपकी भक्ति का दान देना, जिससे हमारा पश्‍चात्ताप मिटे । अथवा हे जिज्ञासुओं ! परमेश्‍वर की भक्ति के अतिरिक्त व्यावहारिक कथन - श्रवण में जो दिन जाते हैं, सो सब विफल हैं, क्योंकि भक्ति बिना प्राणी को प्राणान्त समय में केवल पश्‍चात्ताप ही रहता है ॥ 
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*अनाधिकारी*
दादू कथनी और कुछ, करणी करैं कछु और ।
तिन थैं मेरा जीव डरै, जिनके ठीक न ठौर ॥ 
टीका - हे जिज्ञासुओं ! कहते तो कुछ और हैं और करते कुछ और हैं, ऐसे पुरुषों से हमारा जीव डरता है, क्योंकि उनका कोई ठीक ठिकाना नहीं है । वे बाचाल लोग हैं ॥ 
वाक्य मांहि जो देखिये, गात मांहि सो नांहि । 
जन रज्जब ता सब्द सौं, सुरता ठहरै नांहि ॥ 
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अन्तरगत औरै कछु, मुख रसना कुछ और ।
दादू करणी और कुछ, तिनको नांही ठौर ॥ 
टीका - हे जिज्ञासुओं ! अन्तःकरण में तो कपट भरी और ही बातें हैं, और मुख से रसना द्वारा कुछ और ही बात बोलते हैं, शरीर द्वारा कुछ और ही करते हैं । ऐसे पुरुषों को परमेश्‍वर के दरबार में कोई जगह नहीं है । वे जन्म - मरण के चक्र में ही घूमते रहते हैं ॥ 
मनस्येकं वचस्येकं कर्मण्येकं महात्मनाम् । 
मनस्यन्यद वचस्यन्यत् कर्मण्यन्यद् दुरात्मनाम् ॥ 
(महात्माओं के मन वचन कर्म इकसार होते हैं, जबकि दुष्टों के मन वचन कर्म में भिन्नता होती है ।)
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*मन प्रबोध*
दादू राम मिलन की कहत हैं, करते कुछ औरे ।
ऐसे पीव क्यौं पाइये, समझि मन बौरे ॥
टीका - हे जिज्ञासुओं ! कनिष्ठ श्रेणी वाले जो मनुष्य हैं, वे आत्मा की तो चर्चा करते हैं, और उनका व्यवहार सांसारिकजनों की तरह देखने में आता है, उनको आत्म - साक्षात्कार किस प्रकार होगा ? हे भोले ! अज्ञानी मन ! अर्थात् हे प्राणधारी ! यह सत्य समझ कि करणी बिना केवल कथनी से आत्म - प्राप्ति नहीं होगी ॥ 
कर्म करे मन मंद अति, चाहे दरस गंभीर । 
रांधी खाटी राबड़ी, कैसे खावै खीर ॥ 
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*बेखर्च व्यसनी*
दादू बगनी भंगा खाइ कर, मतवाले मांझी ।
पैका नांही गांठड़ी, पातशाह खांजी ॥ 
टीका - हे जिज्ञासुओं ! भांग आदि का नशा करके मतवाले हो रहे हैं । अर्थात् अनेक प्रकार के विषयों में फँस कर, विषय - रस को पान करके मतवाले मांझी बन रहे हैं । एक पैसा तो पास में है नहीं और मन में बादशाह और खांसाहब बन रहे हैं । ऐसे पुरुष ईश्‍वर विमुख ही सदा बने रहते हैं ॥ 
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दादू टोटा दालिदी, लाखों का व्यौपार ।
पैका नांही गांठड़ी, सिरै साहूकार ॥ 
टीका - हे जिज्ञासुओं ! टोटा तो इतना है, जो एक पैसा भी पास में नहीं है । ऐसे दरिद्री लोग बातों में लाखों का व्यापार करते हैं और साहूकारों में अपने आपको सबसे श्रेष्ठ बतलाते हैं । इसी प्रकार वाचक ज्ञानी वेदों का शब्द - ज्ञान करके अति अभिमानी हो रहे हैं एवं भक्ति - ज्ञान वैराग्य का उनमें अंश मात्र भी नहीं है । जो करणी रूप धारणा से तो अति दरिद्री विषयी हैं, परन्तु वाचक उपदेश से अपने को ज्ञानी मानते हैं, ऐसे वाचक ज्ञानियों का कल्याण होना असम्भव है ॥ 
ज्ञान ध्यान रेचक नहीं, नहीं सील संतोंष । 
भगत कहावै राम को, ‘मोहन’ व्यर्थ भरोस ॥ 
*(श्री दादूवाणी ~ सांच का अंग)*

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