#daduji
卐 सत्यराम सा 卐
*श्री दादू अनुभव वाणी*
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
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*भेष का अँग १४*
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*इन्द्रियार्थी भेष*
ज्ञानी पँडित बहुत हैं, दाता शूर अनेक ।
दादू भेष अनँत हैं, लाग रह्या सो एक ॥४॥
४ - २४ में इन्द्रिय - पोषणार्थ भेष बनाना उत्तम नहीं, यह कह रहे हैं - परोक्ष - ज्ञान युक्त ज्ञानी, शास्त्र के विद्वान्, दाता, वीर तो अनेक मिलते हैं और भेषधारियों का तो अन्त ही नहीं है किन्तु निरन्तर भगवद् भजन में ही लगा रहे, ऐसा तो कोई विरला ही मिलेगा ।
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कोरा कलश अवाह१ का, ऊपरि चित्र अनेक ।
क्या कीजे दादू वस्तु बिन, ऐसे नाना भेष ॥५॥
कुम्हार के आवां१ में पके हुये कोरे कलश पर अनेक चित्र होंऔर उसमें वस्तु कुछ भी न हो तो वह देखने मात्र का ही है । वैसे ही भगवद् भक्ति बिना नाना मतों के नाना भेषों का क्या करें ? वे भी देखने मात्र के ही हैं । (प्राचीन लिपि में "भेष" को "भेख" पढते हैं ।)
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बाहर दादू भेष बिन, भीतर वस्तु अगाध ।
सो ले हिरदै राखिये, दादू सन्मुख साध ॥६॥
जिनके शरीर पर भेष तो कुछ भी नहीं है किन्तु अन्त:करण में भक्ति - ज्ञानादि वस्तुएं अथाह भरी हैं, ऐसे सँतों के सत्संग में रहकर उनकी भक्ति - ज्ञानादि वस्तुएं लेकर अपने हृदय में धारण करनी चाहिये ।
(क्रमशः)

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