#daduji
卐 सत्यराम सा 卐
*श्री दादू अनुभव वाणी*
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
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*भेष का अँग १४*
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दादू स्वाँगी सब सँसार है, साधु समुद्राँ पार ।
अनल पँखि कहं पाइये, पँखी कोटि हजार ॥१९॥
अन्य पक्षी तो पृथ्वी पर अनन्त मिलते हैं किन्तु अनल पक्षी कहां मिलता है ? वह तो कहीं आकाश में ही रहता है । वैसे ही भेषधारी तो सँसार में अपार भरे हैं किन्तु सच्चा सँत कहां है ? वह तो साँसारिक विषय - विकार - समुद्र से पार, परब्रह्म के चिन्तन में लगा हुआ कहीं एकान्त देश में ही मिलेगा ।
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दादू चन्दन वन नहीं, शूरन के दल नाँहिं ।
सकल खानि१ हीरा नहीं, त्यों साधू जग माँहिं ॥२०॥
वन में चन्दन का वृक्ष विरला ही होता है, चन्दन का वन नहीं होता । सेना में वीर विरला ही होता है, वीरों का दल नहीं होता । सब खानियों में हीरा नहीं होता, वैसे ही सँसार में सच्चा साधू विरला ही मिलता है ।
(१मूलग्रंथों में खानि की जगह "समँद"(समुद्र) पाठ मिलता है जो सही है । वैज्ञानिकों का मत है कि प्रलयकाल में अथवा अतिवृष्टिजन्य बाढ़ के कारण वन पृथ्वी के गर्त समुद्र में समा गये और भूगर्भ स्थित अग्नि - ताप से दग्ध होकर कोयला बन गये । मिट्टी की परतों के भार से यह कोयला पत्थर के समान कठौर हो गया । समुज्तल हटने से निकले भूभाग की इन्हीं पत्थर के कोयले की खानों में कहीं - कहीं पर कार्बन का शुद्ध रूप हीरा पाया जाता है । - सँ - )
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जे सांई का ह्वै रहे, सांई तिसका होइ ।
दादू दूजी बात सब, भेष न पावे कोइ ॥२१॥
जो सर्व भाव से भगवत् के समर्पण होकर भगवद् - भजन में लीन रहता है तब भगवद् उसके अनुकूल होकर साक्षात्कार के साथ २ उसके योग - क्षेमादि कार्य भी करते हैं, अन्य बाह्य साधन भेषादि सब तो दिखावा मात्र ही हैं । भेषादि बानाडम्बर से कोई भी भगवान् को प्राप्त नहीं कर सकता ।
(क्रमशः)

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