शनिवार, 14 अक्टूबर 2017

= १०६ =

💐#daduji
卐 सत्यराम सा 卐
दादू बेली आत्मा, सहज फूल फल होइ ।
सहज सहज सतगुरु कहै, बूझै बिरला कोइ ॥ 
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साभार : सर्वज्ञ शङ्करेन्द्र ~ Kripa Shankar Bawalia Mudgal
॥ श्री गुरुभ्यो नमः ॥
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॥ पराविद्या ॥ : ( ८ ) :
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नारायण ! प्रश्न उठता है कि जो केवल ब्रह्म में ही स्थित है वह उपदेश क्यों करेगा? भाष्यकार भगवान् शङ्कर स्वामी जी उत्तर देते हैं "विद्योपयोगार्थी"। विद्या के उपयोग की जिसमें इच्छा है । शास्त्रों के अन्दर एक प्रतिपत्ति कर्म कहा जाता है । याग करते हुए सिर इत्यादि खुजलाने के लिए काले हिरण के सींग के उपयोग का विधान है । जो याग कर रहा होवे, उसको खाज आवे, खुजली आवे, तो हाथ से न करे । काले हिरण का जो सींग है वह उसको दे दिया जाता है। इससे खाज करना । अब प्रश्न उठता है कि याग जब समाप्त हो गया तो उसका क्या किया जाय ? तो शास्त्रों ने बताया है "चात्वाले कृष्णविषाणं प्रास्यति ।" एक विशेष गड्ढा खुदा होता है, उसके अन्दर उसको डाल देवे । जिस चीज की आवश्यकता समाप्त हो गई उस चीज़ का कहीं न कहीं विनियोग करना पड़ता है । अब याग खत्म हो गया तो यह तो नहीं कि सींग को हाथ में पकड़े रखे । कहीं तो डालना पड़ेगा । इसी प्रकार से शास्त्रकार कहते हैं कि विद्या भी डालनी पड़ती है ।
"त्यज धर्ममधर्मं च उभे सत्यानृते त्यज ।
उभे सत्यानृते त्यक्त्वा येन त्यजसि तत् त्यज ॥"
आत्म - ज्ञान के बल से धर्म और अधर्म दोनों को छोड़ देना है । सत्य और अनृत दोनों को छोड़ देना है । अब जिस ब्रह्मविद्या के बल से धर्माधर्म, सत्यानृत सब कुछ छोड़ दिया "येन त्यजसि" जिस ब्रह्मविद्या के बल से इनको छोड़ा, "तत्त्यज" उसको छोड़ो । अब उसको कहाँ छोड़ें? वह कोई द्रव्य तो है नहीं कि उठा कर चौक में फेंक दो या सड़क पर फेंक दो । ज्ञान तो शिष्य के हृदय में ही डाला जा सकता है । जिस ब्रह्मविद्या से धर्माधर्म, सत्यानृत सब को पार कर लिया, अब जो वह ब्रह्मविद्या है वह शिष्य के हूदय में छोड़नी है । यही विद्या का उपयोग है । तो विद्योपयोगार्थी भी गुरु को होना पड़ेगा । ऐसा भगवत्पाद् शङ्कर कहते हैं ।
नारायण ! इस विद्या का उपयोग करते समय जो हृदय में अनुग्रह का भाव है वह जिस पर हो जाये उसी को यह प्राप्त हो जाती है । एक ब्राह्मण देवता था । नाम था उसका पाकयज्ञ । उसका पुत्र था शशिवर्ण । यद्यपि पाकयज्ञ ने सब प्रकार की शिक्षा उसको दी थी परन्तु कुसंग के कारण शशिवर्ण पापों में रत हो गया । मनुष्य के जीवन का निर्माण करने वाली सबसे बड़ी चीज़ संग है । इसीलिए शास्त्रों के अन्दर बार - बार जोर दिया कि कुसंग कभी न करे । परन्तु आधुनिक युग के अन्दर नित्य निरन्तर कुसंग का प्रवाह है । लोग आकर बड़े प्रेम से यह तो कहते हैं "महाराज टेलीविजन के अन्दर रामायण आती है यह तो अच्छी चीज है ।" हम कहते हैं "बहुत अच्छी चीज़ है ।" फिर हम चुप रहते हैं कि देखें ये आगे कुछ कहते हैं कि नहीं कहते । फिर हभ उनसे कहते हैं "उसमें यह भी तो आता है कि अण्डा खानी चाहिये, बड़ी अच्छी चीज है । उसका भी तो विज्ञापन आता है ।" कहते हैं "हाँ जी वह भी आता है ।" तो जो कुसंग है उसको कुसंग न मानना यह एक प्रकार का आग्रह हो गया है क्योंकि कुसंग से बचने की हमारी प्रवृत्ति नहीं । शास्त्रकार कहते हैं अगर सत् का संग कर सको तो बड़ा अच्छा पर न कर सको तो कुसंग तो मत ही करो । संग से ही मनुष्य के संस्कार बदलते हैं, मनुष्य का निर्माण होता है । अब हमारी संग की परिस्थिति यह हो गयी है कि बड़े से बड़े घर के बच्चों को बड़ा किया जाता है किनके संग में ? आयाओं के संग में, दाईयों के संग में । मेडसर्वेन्ट नाम रख दिया उनका । वे किस स्तर की हो सकती है यह तुम खुद जानते हो । उनकी भाषा, उनका लहज़ा सब किस स्तर का होता है । फिर लोग आकर शिकायत करते हैं "महाराज बड़े अच्छे - अच्छे घरों के लड़के ऐसा करने लग गये ।" अच्छे घरों ने अच्छे घरों का वतावरण उन बच्चों को दिया कब ? उनको तुमने दाइयों का वातावरण दिया । तो उसी वातावरण में ही तो वे पले हुए हैं ! इसी प्रकार से सर्वत्र हमारा संगदोष बढ़ता जा रहा है ।
नारायण ! शशिवर्ण इस संगदोष के कारण ही पापरत हो गया । इसलिये खान - पान उसका अशुद्ध हो गया । शराब पीना, मांस खाना, परमेश्वर की निन्दा करना यह सब उसने प्रारम्भ कर दिया । यह संसार माया का स्थान है । थोड़ी कड़वी बात कहेंगे, घबराना नहीं । यह संसार जो है न यह माया का स्थान है । इसलिये यहाँ जीवन में बुरे कर्म करने वालों की उन्नति तुमको हमेशा दिखेगी। यह आज की ही बात नहीं है । जहाँ कहीं पुराणों में देखोगे, राक्षस लोग हमेशा जीतते हैं, देवता हारते हैं, अन्त में परमेश्वर की शरण में जाते हैं और परमेश्वर ही उनको बचाते हैं । यह संसार चूँकि माया का खेल है इसलिये मायावी लोग ही यहाँ पर सफलता को प्राप्त करते हैं । अतः जीवन की परिस्थितियों में असफलता मिलने पर कभी दुःखी मत हो । जो कोई अंतरंग साधक होता है उसको तो हम कई बार कहते हैं जीवन में जब सफलता पर सफलता होती जाये तो बैठ कर विचार करो कहीं कोई पाप तो नहीं कर रहे हो । यदि शुभ कर रहे होगे तो तुम्हें उसमें विघ्नों की प्राप्ति होगी । यह बहुत कम होता है कि आदमी गलत न करे और संसार में सफलता पर सफलता मिलती जाये ।
नारायण ! शशिवर्ण पाप में रत था इसलिये सफलताये मिलती गईं । परन्तु उसका पिता हमेशा परमेश्वर से प्रार्थना करता था कि अरे यह देखो दुष्कर्म में प्रवृत्ति कर रहा है इसे सद्बुद्धि आवे । उसको समझाने का प्रयत्न करे । तो वह तो सफल हो रहा था । सफल व्यक्ति तो सुनना भी नहीं चाहता । पिता भगवान् से बार - बार प्रार्थना करे कि इसको किसी प्रकार आप रास्ते पर लावें । धीरे- धीरे शशिवर्ण जरा बड़ी उम्र का हो गया । एक बार बड़ा जबरदस्त बीमार पड़ा । अपस्मार अर्थात् मिर्गी का रोग हो गया उसको । अब जितने उसके पाप करने के मित्र, साथी थे सबने साथ छोड़ दिया । पापियों के समुदाय की यह विशेषता है । जब तक तुम पाप कर्म में रत रहोगे तब तक तुम्हारे मित्र हैं और जहाँ तुम्हारी पाप करने की सामर्थ्य गयी वहाँ उनकी मित्रता खत्म । तुम मित्रों को दस साल तक शराब पिलाते रहो और दस साल के बाद कह दो अब हमने शराब छोड़ दी हमारे साथ बैठ कर दूध पिया करो, तो वे जितने मित्र हैं न, सब उठ जायेंगे । कोई दूध पीने के लिए तुम्हारे पास नहीं बैठेगा । पाप का यह स्वभाव है, क्योंकि पाप कर्म करने वाले में कभी भी कर्तव्य - बुद्धि तो उदय होती नहीं । उसमें तो भोग - बुद्धि प्रधान रहती है । तो शशिवर्ण को मित्रों ने छोड़ दिया । अब धीरे - धीर उसकी बात समझ में आने लगी कि पीता जी ठीक कहते थे । पिता जी से प्रार्थना करने लगा । अब जो बचपन में पढ़ा हुआ था, पिता ने तो सब पढ़ाया ही था, वह संस्कार उदय होने लगा - अरे मैं तो गलत रास्ते पर चला गया । जब पिता ने देखा कि इसकी वृत्ति संसार के बाह्य विषयों से, हट रही है तो उसे गोपर्वत पर रहने वाले महाकारुणिक महानन्द नाम के महात्मा के पास ले गया । उनसे प्रार्थना की । उन्होंने सब बाते सुनकर उससे कहा "भाई तुम मेरे पास कुछ समय रहो ।" बड़े प्रेम से उन्होंने उसके उपर हाथ फेरा । पाकयज्ञ के उस पुत्र को देख कर उनके हृदय में करुणा आई । यह मेरा ही बच्चा है - इस भावना से उन्होंने ब्रह्मविद्या के बल से उसको अपना लिया । उसके रोग की निवृत्ति हो गई । अब वहाँ रहकर शशिवर्ण उनकी सेवा करने लगा ।
उनके पैर दबाने, तेल की मालिश करता, उनके वस्त्रादियों को धोता, उनके लिये जंगल में जाकर शाक, मूल, फल इत्यादि लाता । इस प्रकार निरन्तर सेवा में जब लग गया तो उसका अन्तःकरण शुद्ध होता चला गया ।
अन्त में जब उन्होंने देखा कि इसकी सर्वथा इधर से निवृत्ति हो गई है तो उसको वेदान्त ज्ञान दिया, जिससे वह कृतार्थ हो गया । जितने भी मनुष्य के दोष हैं सब निवृत्त हो जाते हैं जब वह बाहर से वृत्ति हटा लेता है । प्रत्येक व्यक्ति अपने जीवन में न जाने कितनी गलतियाँ करता ही रहा है । किसी ने आज की है, किसी ने पूर्व जन्मों में की है। जैसे ही मनुष्य की वृत्ति बाह्य समस्त विषयों से उपरत हो जाती है, वह गुरु के शरण लेने के योग्य बन जाता है । जैसे ही बाहर फैलने वाली वृत्ति से हटाकर परमात्मा को जानने के लिए प्रवृत्त हो जाता है वैसे ही गुरु की कृपा मिलकर उसको अवश्य कल्याण की प्राप्ति हो जाती है । आवश्यकता है बाह्य विषयक वित्तियों को अन्तर्मुखी करने की। इसी को यहाँ "विधिवत् उपसन्नः प्रचपच्छ ।"

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