#daduji
卐 सत्यराम सा 卐
*शब्द दूध घृत राम रस, मथि करि काढ़ै कोइ ।*
*दादू गुरु गोविन्द बिन, घट घट समझि न होइ ॥*
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साभार ~ स्वामी सौमित्राचार्य
“प्रपत्ति”
एक भाई ने हमसे प्रश्न किया कि हम सीधे भगवान तक क्यों नहीं पहुँचें ? संतों या गुरुजनों का आश्रय लेकर ही क्यों पहुँचें ?
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इस पर हम अपना मत रखते हैं. कहीं पहुँचना हो तो पैरों को चलाना पड़ता है. पैर तो चल देंगे, इसमें कोई दिक्कत नहीं है. पर पैर भी तो मन और बुद्धि की मानते हैं. मन और बुद्धि ही तय करते हैं कि इन्हें कब उठाना है, कब चलना है, कब रुकना है और कहाँ चलना है. जब तक मन और बुद्धि पर किसी का अंकुश नहीं है तब तक ये आवारा हैं. ये फालतू ही भटकेंगे और भटकाते रहेंगे.
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जब हम किन्हीं श्रेष्ठजन(संत, गुरु) का आश्रय लेते हैं तब धीमे-धीमे मन और बुद्धि उनकी बात मानना शुरू करते हैं और तब पैर भी ठीक तरह से चलकर ठीक जगह पहुँचायेंगे.
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एक बात और भी है. जब मेरे जैसे लोग गुरु की शरण लेते हैं तो भी उनकी बात पूरी तरह से कहाँ मानते हैं, बीच बीच में अपनी ही खुरपेंची करते रहते हैं. जैसे आपने छोटे बच्चों(३-४ साल के) को देखा होगा. वो बहुत चंचल होते हैं. कुछ न कुछ किया करते हैं. बहुत कम ही बड़ों की सुनते हैं. अपनी मनमर्जी से खुराफ़ात करते रहते हैं. पर बड़ों की नज़रें हमेशा उन पर होती हैं. बड़े कुछ भी बोलें, वो कहेंगे ‘नहीं’. ऐसे ही गुरूजी कुछ कहेंगे तो हमारा मन अन्दर ही अन्दर बोलेगा ‘नहीं’. हमारी हालत भी उस बच्चे से कम नहीं है.
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जब वो बच्चा ‘कुछ न कुछ’ करते हुए थक जाता है तो जहाँ-का-तहाँ सो जाता है. तब माँ उसे गोद में उठाकर बिस्तर पर लेटा देती है. बस ऐसे ही हम भी जब ‘कुछ न कुछ’ करके थक जाते हैं और सो(‘अक्रिय’) जाते हैं तो गुरूजी हमको गोद में उठाकर प्रभु के चरणों में लेटा देते हैं. यही ‘प्रपत्ति’ है – प्रभु स्वयं ही गुरु रूप में आकर शरणागत जीवों को खुद अपने तक ले आते हैं. फिर भले हमको ऐसा लगता रहे कि हम अपने साधन से पहुँचे हैं.
गुरु की शरण होने की सबसे सुन्दर बात यह है कि हम भले गंभीर नहीं हों पर गुरु हमको पूरी गंभीरता से, पूरे प्रेम से और पूरे वात्सल्य से अपना लेते हैं.
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अब कोई कहेगा कि हम मन और बुद्धि से पक्का निर्णय ले लेंगे कि दिल्ली जाना है तो पैर वहाँ तक पहुँच ही जायेंगे.... ठीक बात है आप पहुँचो.. हमको जब फ्री में ‘एयर टिकट’ मिल रहा है तो हम हवाई जहाज़ से जायेंगे – आराम से, बिना श्रम के, बिना खर्चे के, जब यात्रा का भी अपना अद्भुत आनन्द होगा – यही गुरुजनों की शरण लेना है.
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सबसे बड़ी बात तो यह है कि गुरु और भगवान एक ही हैं तो गुरु तक पहुँचना भी सीधे भगवान तक ही पहुँचना है.
“स्वामी सौमित्राचार्य”

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