सोमवार, 30 अक्टूबर 2017

= १३३ =

卐 सत्यराम सा 卐
*दादू अहनिशि सदा शरीर में, हरि चिंतत दिन जाइ ।*
*प्रेम मगन लै लीन मन, अन्तरगति ल्यौ लाइ ॥* 
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साभार ~ ‎Krishnacharandas Aurobindo

प्रह्लाद जी ने असुर बालकों को भगवान की प्रेमा-भक्ति प्राप्त करने के उपाय बताये। गुरु की(संतों की) प्रेमपुर्वक सेवा, अपने को जो कुछ मिले उसे भगवान की सेवा में अर्पण करना, भगवत्प्रेमी महात्माओं का संग(जो संसार की आसक्तियों से दूर भगवान की लीला-कथाओं में ही रमण करते हैं), भगवान की आराधना(अर्चना फुल, धूप-दीप, प्रसादादि उपचारों से तथा मानसरुप से, वन्दन- सभी मंदिरों में भगवान के विग्रहों को दण्डवत् प्रणाम करना, दास्यं - भगवान के मंदिरों की, महात्माओं की...उनके आश्रमों की झाडु-बुहारी आदि तन-मन-धन से सेवा करना तथा सभी प्राणीमात्र को भगवानका रूप मानकर सेवा, सख्यं -भगवान से और समस्त जीवों में निवासित भगवन से सख्य(मैत्री).... आदि नवधा भक्ति से आराधना करना), भगवान की लीला-कथाओं में रुचि लेकर श्रवण करना, भगवान के गुण, लीला, नामोंका संकिर्तन, भगवान के चरणकमलों का अपने हृदय में ध्यान करना, भगवान के मंदिरों में जाकर दर्शन-पुजन करना ... आदि साधनों से भगवान में स्वाभाविक प्रेम हो जाता है। 
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सभी प्राणीयों में भगवान विराजमान हैं ऐसा जानकर उनको सुख पहूंचाकर सेवा करे, हृदय से उनका सम्मान करें। काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद और मत्सरादि षड्रिपुओं के उपर विजय प्राप्त करने का साधन करना। इन सबसे भगवान में प्रीति भक्ति प्राप्त हो जाती है। भगवान की भक्ति प्राप्त करना ही मनुष्य जीवन का सार तथा लक्ष्य है... अगर ये नहीं हुआ तो जीवन बेकार है।
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सभी के हृदयाकाश में स्थित परमात्मा का भजन करने में कोई परिश्रम नहीं है क्यों कि वे सबके समान रूप से प्रेमी हैं। उन्हें छोडकर संसार के नश्वर सुखों के साधनों के पीछे पागलों जैसे दौडना कितनी मूर्खता है...? संसार की सारी संपत्ती, सारे सुख के साधन मनुष्य को कभी सुखी नहीं कर सकते। जो सुख का साधन प्रतीत होता है वही तापदायक होता है। परलोक के सुख भी ऐसे ही क्षणभँगुर हैं क्यों कि क्षिणे पुण्ये मर्त्यलोकं विशन्ति -- पुण्य खतम होने पर वापस जन्म मरण के चक्र में आना पडता है। सभी कर्म भी ऐसे ही सदोष हैं। मनुष्य कर्म करता है सुख की प्राप्ति के लिये और दुःख के नाश के लिए लेकिन न तो दुःख की निवृत्ति ही होती है और न स्थायी सुख की प्राप्ती होती है। इसलिये भगवान का भजन ही मनुष्य जीवन का उद्देश होना चाहिये।
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भगवान की लीला-कथाओं के निरंतर श्रवण से चित्त शुध्द होने लगता है। चित्त शुध्दि के लक्षण ये हैं --
भगवान का नाम संकिर्तन या कथा प्रसंग सुनकर रोमांच होना, आँखो से अश्रुप्रवाह होना, वाणी का गद्गद होना, भगवान के नामों का बिना लज्जा-संकोच के जोर जोर से उच्चारण होना, नृत्य करना(दिखावटी नहीं... जैसा लोग करते हैं... ये होने लगता है), कभी हँसना तो कभी रोना तो कभी पुलकायमान होना... कभी स्तंभित होना, कभी भगवद्भाव से सभी की वंदना करने लग जाना..... ऐसे भक्ति के लक्षण जब प्रकट होते हैं तो उस भक्ति के प्रभावसे सारे बंधन कट जाते हैं और भगवद्भाव से उसका चित्त भगवन्मय हो जाता है। उस समय जन्मजन्मान्तरों के सभी कर्म बीजसंस्कार जल जाते हैं और भक्त भगवान को प्राप्त कर लेता है। इसी को ब्रह्म प्राप्ति या निर्वाण कहते हैं।
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अपने तथा सभी के हृदय में स्थित परमात्मा का भजन ही सार है और वही करने के लिये ये मनुष्यजन्म मिला है... क्षणभँगुर विषयसुखों की प्राप्ति के लिये नहीं। धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष ये चतुर्विध पुरुषार्थ कर्मों के नहीं भगवान के आधीन हैं।मनुष्य इनके लिये प्रयत्न करता जरूर है किंतु उसे उसमें सफलता मिलना अनिश्चित है। जो भगवान के चरणकमलों का आश्रय लेकर उनका भजन करता है उसे इन पुरुषार्थों की प्राप्ति सहज हो जाती है।
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भगवान को प्रसन्न करने के लिये न तो द्विज(ब्राह्मण)होना, न ऋषि होना, सदाचार या विविध ज्ञान से संपन्न होना, दान, तप, यज्ञ, शारीरिक और मानसिक शौच और बडे-बडे व्रतों का अनुष्ठान पर्याप्त नही है। भगवान केवल निष्काम प्रेम-भक्ति से प्रसन्न होते हैं.... और सब विडम्बना मात्र हैं। इसलिये सभी प्राणीयों को अपने समान समझ कर सर्वत्र विराजमान भगवान की भक्ति करो। भगवान की भक्ति के प्रभाव से आज तक बहोत दैत्य, यक्ष, राक्षस, स्त्रियां, शुद्र, गोपालक, अहीर, पक्षी, मृग और बहोत से पापी जीव भी भगवद्भाव को प्राप्त हो गये हैं।
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इस सँसार में या मनुष्य-शरीर में जीव का सबसे बडा स्वार्थ अर्थात् एकमात्र परमार्थ इतना ही है कि वह भगवान् श्रीकृष्ण की अनन्य भक्ति प्राप्त करे। उस भक्ति का स्वरूप है सर्वदा, सर्वत्र सभी जीव मात्र तथा सृष्टि में भगवान का दर्शन करना तथा उनकी सेवा करना।

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