मंगलवार, 3 अक्टूबर 2017

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卐 सत्यराम सा 卐
जैसे घी से दीपक प्रकाशमान होकर, सर्वत्र प्रकाशता है । अर्थात् जीवन-मुक्ति और विदेह-मुक्ति रूप अमृत फल होता है, उसका स्वरूप वर्णन करते हैं :- 
*मथि करि दीपक कीजिये, सब घट भया प्रकाश ।*
*दादू दीवा हाथि करि, गया निरंजन पास ॥३५॥* 
टीका - "मथि" कर विधिपूर्वक आत्म-अनात्म का विचार करके आत्मबोधरूप दीपक जगाना चाहिए, जिससे "सब घट भया प्रकाश"- अर्थात् संपूर्ण शरीर में आत्म-ज्ञान का प्रकाश हुआ । जीवन-मुक्ति रूप दीवा "अहं ब्रह्मास्मि" वृत्तिरूप हाथ में लेकर अर्थात् तत्स्वरूप होकर निरंजन माया रहित शुद्ध चेतन में विदेह मोक्ष हो गया अर्थात् अभेद हो गया ॥ ३५ ॥ 
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*परमार्थ* 
*दीवै दीवा कीजिये, गुरुमुख मार्ग जाइ ।*
*दादू अपने पीव का, दर्शन देखै आइ ॥३६॥* 
टीका - जैसे व्यवहार में प्रकाशमान दीपक से, दूसरे दीपक को भी जलाया जाता है । तदनुरूप ही सतगुरु का उपदेश पालन करके अपने शरीर में दीपक ज्ञानरूपी बुद्धि है, उसको दीवा रूप सतगुरु उपदेश से प्रकाशमान बनाना चाहिये अर्थात् बाह्य-विषयों से विरत करके आत्म सन्मुख करना चाहिए । इस प्रकार मन को आत्म-सन्मुख बनने से जो फल की प्राप्ति होगी, उसका सतगुरु निर्देश करते हैं । "दादू अपने पीव का, दर्शन देखै आइ" - अर्थात् हे जिज्ञासुजनों ! "आइ" कहिये, पूर्व कहा जो गुरुमुख मार्ग है, उसका अनुसरण करने वाले जिज्ञासु अपने पीव, पालन करने वाले जो परमेश्वर हैं, उन्हीं का दर्शन देखें, अर्थात् आत्म-साक्षात्कार करें ॥ ३६ ॥ 
*(श्री दादूवाणी ~ गुरुदेव का अंग)*
चित्र सौजन्य ~ Hansraj Taneja

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