बुधवार, 4 अक्टूबर 2017

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卐 सत्यराम सा 卐
*दादू बहु बंधन सौं बंधिया, एक बिचारा जीव ।*
*अपने बल छूटै नहीं, छोड़नहारा पीव ॥* 
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साभार ~ Krishnacharandas Aurobindo
काम, क्रोध, लोभ घेउनिया संगे परमार्थासी रिघे तोची मूर्ख।। 
- संत श्रीज्ञानेश्वर माऊली
त्रिविधं नरकस्येदम् द्वारम् कामः क्रोधस्तथा लोभः।
तस्मात् एतद् त्रयम् त्यजेत। 
- श्रीमद्भगवद्गीता
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Desire(not only sexual desire but desire for any worldly thing of enjoyment), anger and greed(for worldly things, for food) are but different manifestations of same lower vital energy which when reflected in lower mind assumes different forms.... but... all the same... it's one energy residing in lower centers namely Muladhar, Swadhisthan and Manipur(Nabhichakra).Unless this energy is transformed by the Divine Power(when Sadhak surrenders himself to the Divine Mother and calls Her to transform this energy and protect him from usurps of this dangerous lower vital energy... which when transformed works for diviner manifestations. 
Sri Aurobindo
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श्रीअरविंद जी के अनुसार ये काम-क्रोध-लोभ एक ही निम्न प्राणशक्ति के त्रिविध रूप हैं। मुलाधार, स्वाधिष्ठान तथा मणीपुर चक्र में इनका स्थान है.... जहाँ से इनकी तरँगे उठकर पुरे व्यक्तित्व में व्याप्त होकर मनुष्य को तो क्या साधक और देवताओं को भी काम, क्रोध और लोभ के बवँडर में धकेल देती हैं। श्रीअरविंद जी कहते हैं की जब तक इन निम्न चक्रों में स्थित प्राणशक्ति का सर्वोच्च माता परांबा "भगवती" के द्वारा रुपाँतरण नहीं होता.... अच्छे से अच्छा साधक भी संपुर्णतः सुरक्षित नहीं... फिर वो चाहे जितना यम-नियम-संयम से इनको दबाये रखे... या मन को चाहे जितना समझाये... या पतन होने के बाद चाहे जितना पश्चाताप कर ले... वो सुरक्षित नही है। इसलिये भगवान की बारंबार प्रार्थना... सद्गुरु के चरणों में शरणागती.... सभी जीवों के प्रति(न केवल साधकों या मनुष्योंके प्रति) अनसुया या मात्सर्य रहित होना.... निष्कामभाव से सभी जीव-जगत की सेवा --- यही एकमात्र आलंबन है। जब आपके निष्कपट सत् व्यवहार से सद्गुरु प्रसन्न होते हैं तो वे ही आपको इन सब अंतर्रिपुओं से सुरक्षा देकर उर्ध्वरेता बनाते हैं। 
संत तुकाराम महाराज का दैन्य परक अभंग :--
चतुर मी झालो आपुल्या
आता पुढे वाया जावे हे ते काही।
काम क्रोधे ठायी वास केला।
गुण दोष आले जगाचे अंतरा।....
तुका म्हणे करू उपदेश लोका।
नाही झालो एका परता दोषा ।। 
संत तुकाराम महाराज कहते हैं, "हे प्रभु मैं बहुत चतुर हो गया हुँ।(चतुर व्यक्ती अपने फायदे के लिये दूसरों को ठगने में बुरा नहीं मानता न पश्चाताप करता है।)
अब मेरा और कुछ विनाश होना बाकी नही रहा...क्योंकि जगतके गुण दोष(मतलब दोष) मेरे भीतर वास(पक्का निवास) पा गये। मैं लोगों को उपदेश तो करता हुँ लेकिन आज तक एक भी दोष से मैं अपने आपको पुर्णतया मुक्त नहीं कर पाया।
भगवान के नित्यसखा श्री उध्दवजी के अवतार संत श्रेष्ठ श्री तुकाराम महाराज ने हम जीवों के लिये अपने उपर दोषा रोपण कर भगवान के आगे दैन्य प्रकट किया क्योंकि भगवान दैन्यभाव से प्रसन्न होते हैं न की अपने को उत्तम साधक मानने से...!!! संत तुकाराम महाराज ने ये जो आंतरिक स्थिती प्रकट की ये उन उपदेश कों की होती हैं जो दुसरों को उपदेश तो देते हैं किंतु अपने अंदर उन्हीं दोष को पालते हैं।
भगवान के सामने आत्मनिवेदन परक भक्ति से अपनी सारी कुटिलाई, चातुर्य, कमजोरीयाँ... अहंकारादी का निवेदन करने से भगवान उन्हें हटाते हैं। भगवान ने ही जीव को अष्टपाशों से जो उनकी शक्तियों के हाथों में हैं.... पशुभाव में बंदिस्त कर रखा हैं।

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