शुक्रवार, 6 अक्टूबर 2017

= साँच का अंग =(१३/१६९-७१)

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卐 सत्यराम सा 卐 
*श्री दादू अनुभव वाणी* 
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥ 
*साँच का अंग १३* 
सूरज साक्षीभूत है, सांच करे परकाश ।
चोर डरे चोरी करे, रैनि तिमिर का नाश ॥१६९॥
जैसे सूर्य सबको प्रकाश प्रदान करते हैं, वैसे ही ब्रह्मज्ञानी सज्जन सँसार में साक्षी रूप रह कर सत्य ब्रह्म का उपदेश करते हैं । जैसे रात्रि का अंधकार नाश होने पर चोर चोरी करने में डरता है, वैसे ही स्वार्थी दूर्जन सत्य उपदेश करने से डरते हैं । वे सोचते हैं, सत्य उपदेश होने पर प्राणी हमारे फंदे से मुक्त हो जायेगा ।
चोर न भावे चांदणा, जनि उजियारा होइ ।
सूते का सब धन हरूँ, मुझे न देखे कोइ ॥१७०॥
चोर को प्रकाश अच्छा नहीं लगता, वह यही चाहता है - प्रकाश न हो । अंधेरी रात्रि में मुझे कोई देख न सकेगा और मैं सूते प्राणी का सब धन अपहरण कर लूँगा । वैसे ही स्वार्थी दूर्जन चाहता है - किसी को भी यथार्थ ज्ञान न हो । अज्ञान में रहेंगे तो लोग मेरी चालाकी जान न सकेंगे और मैं इनसे मेरा स्वार्थ सिद्ध करता रहूंगा ।
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*सँस्कार आगम*
*घट घट दादू कह समझावे,*
*जैसा करे सो तैसा पावे ।*
*को काहू का सीरी नाँहीं,*
*साहिब देखे सब घट माँहीं ॥१७१॥*
इति साच का अँग समाप्त ॥१३॥सा - १४८५॥
१७१ में कहते हैं - सँस्कार के समान आगे कर्म होता है और कर्म के समान फल मिलता है - महानुभाव सँत सदा समझा २ कर कहते हैं - जो जैसा करता है वैसा ही फल पाता है । कर्म - फल भोग में कोई भी किसी का साझेदार नहीं होता । परमात्मा सबके अन्त:करण में रह कर सबकी भावना और कर्म देखते रहते हैं और उनके अनुसार फल की व्यवस्था करते हैं ।
इति श्री दादू गिरार्थ प्रकाशिका सांच का अँग समाप्त: ॥१३॥ 
(क्रमशः)

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