मंगलवार, 17 अक्टूबर 2017

= भेष का अंग =(१४/२५-७)


#daduji
卐 सत्यराम सा 卐
*श्री दादू अनुभव वाणी* 
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
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*भेष का अँग १४*
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*अमिट पाप प्रचण्ड* 
भक्त भेष धर मिथ्या बोले, निन्दा पर अपवाद । 
साचे को झूठा कहै, लागे बहु अपराध ॥२५॥ 
२५ - २६ में सहज न मिटने वाला प्रचँड पाप का परिचय दे रहे हैं - जो भक्त भेष बना कर मिथ्या बोलता है, दूसरों की निन्दा करता है, सच्चे सँतों को पाखँडी कह कर उनसे विरोध करता है, उसे सहज न मिटने वाला महान् पाप लगता है । 
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दादू कबहूं कोई जनि मिले, भक्त भेष सौं जाइ । 
जीव जन्म का नाश ह्वै, कहै अमृत, विष खाइ ॥२६॥ 
भक्त भेषधारी पाखँडी के पास जाकर उससे कभी भी कोई प्रेम न करे, कारण, वह कथन तो भक्ति - ज्ञानादि रूप अमृत का करता है और खाता विषय - विष है । उससे प्रेम करने वाले में भी उसी के सँस्कार पड़ते हैं और जीव के मानव जन्म का व्यर्थ ही नाश हो जाता है । 
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*चित्त कपटी*
दादू पहुंचे पूत बटाऊ होइ कर, नट ज्यों काछा भेष । 
खबर न पाई खोज की, हम को मिल्या अलेख ॥२७॥ 
२७ - २८ मन में कपट रखने वाले भेषधारियों का व्यवहार बता रहे हैं - पाखँडी परमात्मा के पास पहुंचे हुये पवित्र सँत का - सा भेष नट के समान बना, विरक्त होकर पथिक के समान ग्राम २ में घूमते हैं । ज्ञान तो परमात्मा के अन्वेषण के उपाय भक्ति - ज्ञानादि का भी नहीं होता किन्तु कहते रहते हैं - हमें परब्रह्म का साक्षात्कार हो गया है ।
(क्रमशः)

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