बुधवार, 18 अक्टूबर 2017

= ११३ =


卐 सत्यराम सा 卐
*पूर रह्या परमेश्वर मेरा,* 
*अणमांग्या देवै बहुतेरा ॥टेक॥*
*सिरजनहार सहज में देइ,* 
*तो काहे धाइ माँग जन लेइ ॥१॥*
*विश्वंभर सब जग को पूरै,* 
*उदर काज नर काहे झूरै ॥२॥*
*पूरक पूरा है गोपाल,* 
*सबकी चिंत करै दरहाल ॥३॥*
*समर्थ सोई है जगन्नाथ,* 
*दादू देख रहे संग साथ ॥४॥*
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साभार ~ oshoganga.blogspot.com

एक २ शब्द को अंतस की गहराइयों में उतर जाने दें - सम्राट को निमंत्रण दे दिया, तो वजीर, दरबारी, सेनापति सब अपने आप पीछे चले आते हैं। हर एक को निमंत्रण नही भेजना पड़ता। बस सम्राट को बुला लिया- परमात्मा को बुला लिया- शेष सब अपने से हो जाता है। सब अपने आप चला आता है। 
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सारा संसार, सारे संसार का वैभव, सौन्दर्य, गरिमा उसकी छाया है। मालिक आ गया तो उसकी छाया भी आ जाएगी। कभी किसी की छाया को तो निमंत्रण दिया नही जाता ? कि किसी मित्र की छाया को कह दिया कि आना कल मेरे घर। छाया को कोई निमंत्रण नही देता। छाया यानि माया जो दिखाई पड़ती है कि है और है नही। मित्र को निमंत्रण देने से छाया अपने आप चली आती है। मालिक आ गया तो माया भी आ जाएगी। सब उसका ही खेल है। 
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लेकिन... मनुष्य मूर्खता पूर्ण ढंग से वैभव और ऐश्वर्य को खोजता है,परमात्मा को नही। ऐश्वर्य ईश्वर की छाया है। ईश्वर आ जाए तो ऐश्वर्य अपने से आ जाता है। मगर मनुष्य ऐश्वर्य खोजता है। परम् धन तो वो एक परमात्मा ही है। और खोज उस परम धन की ही सार्थक और अर्थपूर्ण है। दीपावली का अर्थ है कि जागो हे मनुष्यों जागो और अपने अंतरतम में होश का, बोध का दीपक प्रज्वलित करो।

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