शुक्रवार, 27 अक्टूबर 2017

= १२७ =

卐 सत्यराम सा 卐
*दादू तन मन के गुण छाड़ि सब, जब होइ नियारा ।*
*तब अपने नैनहुं देखिये, प्रगट पीव प्यारा ॥* 
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साभार ~ Chetna Kanchan Bhagat

अधिक लोग इसलिए जीवन को व्यर्थ कर लेते हैं कि उन्हें पता ही नहीं कि जीवन में क्या बचाने योग्य है, क्या छोड़ देने योग्य है। हम सब वस्तुएं और सामान बचाने में लग जाते हैं और खुद का व्यक्तित्व, खुद की आत्मा खो देते हैं। 
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एक तो कारण यह है कि मनुष्य धार्मिक नहीं हो पाता। और जो मनुष्य धार्मिक नहीं हो पाता है वह मनुष्य कभी आनंदित भी नहीं हो सकता है। धार्मिक होना और आनंदित होना, एक ही बात को कहने के दो ढंग हैं। अधार्मिक होना और दुखी होना, एक ही बात को कहने के दो ढंग हैं। इसलिए कोई कभी कल्पना न करे कि अधार्मिक होते हुए भी कोई व्यक्ति कभी आनंदित हो सकता है। यह असंभव है। जैसे शरीर की बीमारियां हैं, और शरीर से बीमार आदमी कैसे आनंदित हो सकता है? शरीर तो स्वस्थ चाहिए। वैसे ही आत्मा की बीमारियां भी हैं। 
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अधर्म आत्मा की बीमारी का नाम है। जो आत्मा की बीमारी में पड़ा हुआ है वह कैसे आनंदित हो सकता है? शरीर दुखी हो तो भी एक आदमी भीतर आनंदित हो सकता है। लेकिन भीतर की आत्मा ही दुखी हो तब तो आनंदित होने की कोई उम्मीद नहीं है, कोई आशा नहीं है। लेकिन जिस आत्मा को आनंदित करना है उस आत्मा के लिए हम कुछ भी नहीं करते, शरीर के लिए सब कुछ करते हैं। 
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व्यर्थ की चीजों के लिए बहुत कुछ करते हैं। जैसे छोटे बच्चे समुद्र के किनारे पत्थर बीन कर इकट्ठा कर लेते हैं और सोचते हैं कि कोई बहुत बड़ा काम कर लिया। जैसे कि छोटे बच्चे समुद्र के किनारे बैठ कर रेत के मकान बना लेते हैं और लड़ते हैं, झगड़ते हैं--कि मेरा मकान तोड़ दिया! मेरे मकान पर लात मार दी! लेकिन उन्हें पता नहीं कि थोड़ी देर में मां की आवाज आएगी घर से और वह सब मकान वहीं किनारे पर, रेत के किनारे पर छोड़ कर चले जाना पड़ेगा; न कोई मकान किसी का है, न किसी के मिटने से कुछ मिटता है, न बनने से कुछ बनता है। 
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ऐसे ही हम जिंदगी में जो मकान बनाते हैं--मिट्टी के, बाहर के, वस्तुओं के, पदार्थ के--एक दिन पुकार आती है ऊपर से और रेत के किनारे पर सब छोड़ कर चले जाना पड़ता है। फिर उनका कोई हिसाब नहीं रखा जा सकता। फिर उन्हें साथ भी नहीं ले जाया जा सकता। जाते वक्त, जमीन से विदा होते वक्त हाथ खाली होते हैं। लेकिन जिन चीजों से भरने में हमने जीवन गंवा दिया, उनमें से एक भी हमारे साथ नहीं होती। और ध्यान रहे, वही है संपत्ति जो मृत्यु के क्षण में भी साथ रहे। वह संपत्ति नहीं है जो मृत्यु के क्षण में छूट जाए।
ओशो न्यूजलेटर से साभार.... !!!

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