#daduji
卐 सत्यराम सा 卐
*श्री दादू अनुभव वाणी*
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
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*भेष का अँग १४*
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दादू सब दैखैं अस्थूल को, यहु ऐसा आकार ।
सूक्षम सहज न सूझही, निराकार निरधार ॥३७॥
प्राय: सब लोग सच्चे सँत और दँभी के स्थूल शरीर का भेष ही देखते हैं और दँभी के भेष को देखकर तो कहने लगते हैं - इनका यह ऐसा स्वरूप है कि देखते ही मन प्रसन्न हो जाता है, किन्तु उन लोगों को दँभी और सच्चे सँत के हृदय की सूक्ष्म स्थिति सहज ही नहीं ज्ञात होती । दँभी के हृदय में विषय - वासना रहती है और सच्चे सँत के हृदय में निराकार, निराधार, परब्रह्म का चिन्तन रहता है । यह न जानने के कारण ही लोग दँभियों द्वारा धोखा खाते हैं ।
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*परीक्षक अपरीक्षक*
दादू बाहर का सब देखिये, भीतर लख्या न जाइ ।
बाहर दिखावा लोक का, भीतर राम दिखाइ ॥३८॥
३८ - ४० में कहते हैं - यथार्थ परीक्षक राम है, अपरीक्षक सँसारी जन हैं - प्राय: सब लोग बाह्य भेष को ही देखते हैं । सँसारी प्राणियों से हृदय के भीतर का भाव नहीं देखा जाता । बाहर का भेष लोगों को दिखाने का ही है । इससे राम प्रसन्न नहीं होता । भीतर हृदय को भक्ति आदि से सजा कर राम को दिखा, तभी राम प्रसन्न होगा ।
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दादू यहु परिख सराफी ऊपली१, भीतर की यहु नाँहिं ।
अंतर की जानैं नहीं, तातैं खोटा खाहिं ॥३९॥
सँसारी जनों की यह भेष की परीक्षा ऊपर१ की ही परीक्षा है । हृदय के भीतर की परीक्षा यह नहीं है । हृदय के भीतर की बात न जानने के कारण सँत का अनादर करते हैं और दँभियों करके आदर द्वारा बुरी तरह धोखा खाकर दु:ख भोगते हैं ।
(क्रमशः)

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