#daduji
卐 सत्यराम सा 卐
*श्री दादू अनुभव वाणी*
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
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*साधु का अँग १५*
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ज्यों यहु काया जीव की, त्यों सांई के साध ।
दादू सब सँतोषिये, माँहीं आप अगाध ॥४॥
जैसे सम्पूर्ण शरीरों में जीवन को यह मनुष्य शरीर अति प्रिय है, वैसे ही सँपूर्ण प्राणियों में परमात्मा को सँत ही अतिप्रिय हैं । व्यापक होने पर भी अगाध स्वरूप परमात्मा सँतों के हृदय में विशेष रूप से रहते हैं । अत: सब सँतों को वो सर्व प्रकार से सँतों को सेवा से सँतुष्ट करना चाहिये ।
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*सत्संग माहात्म्य*
साधू जन सँसार में, भवजल बोहिथ१ अँग ।
दादू केते उद्धरे, जेते बैठे संग ॥५॥
५ - ११ में सत्संग का माहात्म्य बता रहे हैं - सँत जन सँसार में भव - सागर के जन्म - मरण रूप जल - प्रवाह से पार उतारने के लिये जहाज१ हैं । जैसे जहाज से अनेक मानव समुद्र से पार हो जाते हैं, वैसे ही जितने भी सँतों के सत्संग में बैठते हैं, वे सभी भवसागर से पार हो जाते हैं ।
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साधू जन सँसार में, शीतल चन्दन वास ।
दादू केते उद्धरे, जे आये उन पास ॥६॥
सँत जन सँसार में शीतल चन्दन के समान हैं और उनकी वाणी चन्दन की सुगँध के समान है । चन्दन की गँध से पास के वृक्षों में परिवर्तन हो जाता है वैसे ही सँतों के पास आकर जिन्होंने उनकी वाणी सुनी है, वे भी काम क्रोधादि से पार होकर निष्कामतादि अवस्था को प्राप्त हुये हैं ।
(क्रमशः)

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