शनिवार, 28 अक्टूबर 2017

विरह का अंग १०(९-१२)

#daduji

卐 सत्यराम सा 卐
*ना वह मिलै, न हम सुखी, कहो क्यों जीवन होइ ।* 
*जिन मुझको घायल किया, मेरी दारु सोइ ॥* 
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**श्री रज्जबवाणी** 
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥ 
साभार विद्युत् संस्करण ~ Mahant Ramgopal Das Tapasvi 
**विरह का अंग १०** 
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विरही बालक गूंग पशु, काहि कहै दुख सुक्ख । 
रज्जब मन की मन रही, लहै न मारग मुक्ख ॥९॥ 
विरही, नवजात बालक, गूंगा और पशु अपना दुख: सुख किसको कहते हैं ? इनके मन की व्यथा मन में ही रहती है जब तक ब्रह्म-ज्ञान रूप मुख्य मार्ग नहीं प्राप्त होता तब तक विरह का दुख: समाप्त नहीं होता । 
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अंतर ही अंतर घणा, बिच ही बीच अपार । 
माँहीं माँहिं न मिल सकूं, दीरघ दुख करतार ॥१०॥ 
मेरे अन्त:करण के मध्य ही साक्षी रूप से मेरे प्रियतम रहते हैं किन्तु फिर भी उनमें और मेरे में बहुत भेद है वे विश्वकर्त्ता व्यापक हैं, अत: मैं उनके बीच में ही व्यापक रूप से रहता हूँ किन्तु फिर भी उनके और मेरे मिलन में अज्ञान रूप अपार व्यवधान पड़ रहा है । वे मेरे में हैं, मैं उनमें हूँ, इस प्रकार ओत-प्रोत होने पर भी उनका साक्षात्कार नहीं होता इसी से महान दुख: हो रहा है ।
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रज्जब चखि१ चुख२ चिहुर३ की, नैनहुँ काढे नीर । 
सांई सुरति सुमेरु सम, सु नैनहुँ अटके वीर४ ॥११॥ 
नेत्र१ की पलक के भीतर के छोटे छोटे परबालों३ की चुभन२ नेत्रों से जल निकालती है किन्तु हे भाई४ ! प्रियतम प्रभु की वियोगाकार वृत्ति तो सुमेरू के समान विशाल होने पर भी वह जल नेत्रों में ही अटक जाता है अर्थात प्रभु वियोग का दु:ख तो बहुत होता है किन्तु नेत्रों अश्रु नहीं गिरते, कारण- विरहाग्नि से भीतर ही जल जाते हैं । 
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रज्जब बारह बाहिरा१, विरह तेरहाँ मेघ ।
वहिं२ सौ तिन३ कन४ जन५ सुवहिं६, 
करै कौन कहु सेघ७ ॥१२॥ 
बाहिर१ के बारह मास के बारह सूर्य और तेरहवाँ बादल इन२ से ही घासादि तृण३ और अन्न४ उत्पन्न होते हैं, वैसे ही विरह द्वारा श्रेष्ठ भक्त होते हैं । विरह६ उत्पन्न होने पर भक्त५, भगवद् से भिन्न किस से संबन्ध७ करता है ? जिसका संबन्ध परब्रह्म को छोड़ अन्य से नहीं होता वही श्रेष्ठ भक्त कहलाता है और ऐसा भक्त विरह उत्पन्न होने से ही होता है । 
(क्रमशः)

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