卐 सत्यराम सा 卐
*कै यहु तुम को खेल पियारा,*
*कै यहु भावै कीन्ह पसारा ॥*
*यहु सब दादू अकथ कहानी,*
*कहि समझावो सारंग-पाणी ॥*
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साभार ~ https://oshoganga.blogspot.com
जनक उवाच -
हन्तात्मज्ञस्य धीरस्य खेलतो भोगलीलया।
न हि संसारवाहीकै-र्मूढैः सह समानता॥
इन श्लोकों में, उत्तर दिया है जनक ने, जो परीक्षा ली जा रही है उसके प्रति अपने हृदय के भाव प्रकट किये हैं, वे बड़े अनूठे हैं। 'हंत, भोगलीला के साथ खेलते हुए आत्मज्ञानी धीरपुरुष की बराबरी संसार को सिर पर ढोने वाले मूढ़ पुरुषों के साथ कदापि नहीं हो सकती है।'
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पहला शब्द है. 'हंत !' उसमें सारी श्रद्धा उंडेल दी। 'हंत' बड़ा प्यारा शब्द है। जैनों में उसका पूरा रूप है 'अरिहंत'। बौद्धों में उसका रूप है 'अर्हत'। सनातनी संक्षिप्त 'हंत' का उपयोग करते हैं। हंत का, अरिहंत का, अर्हत का अर्थ होता है, जिसने अपने शत्रुओं पर विजय पा ली, काम, क्रोध, लोभ, मोह, भोग, त्याग, इहलोक, परलोक, जिसने अपनी समस्त आकांक्षाओं पर विजय पा ली, जो निष्काक्षा को उपलब्ध हुआ है, वही है अरिहंत। श्लोक की उदघोषणा करते हैं अरिहंत कह कर, परम श्रद्धा से, इससे बड़ा शब्द नहीं है भाषा में। अरिहंत का अर्थ होता है... भगवान, अरिहंत का अर्थ होता है, आखिरी चैतन्य की दशा, जिसके पार फिर कुछ भी नहीं है। जो-जो हटाना था, हटा दिया। जो - जो गिराना था, गिरा दिया। जो - जो मिटाना था, मिटा दिया। जो - जो जीतना था, जीत लिया। अब कुछ भी नहीं बचा, शुद्ध चैतन्य का सागर रह गया। वैसी दशा का नाम है 'अरिहंत'।
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ज्ञानी वस्तुत: आत्महंता है। वह अपने को मिटा ही डालता है पूरा का पूरा। और उसके मिट जाने में ही परमात्मा का होना है। जब हम खो जाते हो, तभी प्रभु होता है। जहां हम नहीं हो, वहीं भगवान है। हंता का अर्थ है. जिसने अपने को पोंछ डाला, मिटा डाला; जिसने अपने हाथ से अपने अहंकार को घोंट दिया, गला घोंट दिया। फिर बचते हैं हम, असीम की भांति, अनंत की भांति, शाश्वत सनातन की भाति। 'हे हंत, भोगलीला के साथ खेलते हुए आत्मज्ञानी धीरपुरुष की बराबरी संसार को सिर पर ढोनेवाले मूढ़ पुरुषों के साथ कदापि नहीं हो सकती।'
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हंतात्मज्ञस्य धीरस्य खेलतो भोगलीलया।
'हे हंत, हे अरिहंत !
खेलता है ज्ञानी तो
भोगमयी लीला के साथ, ढोता नहीं।
क्रीड़ा है जगत, कृत्य नहीं।'
अज्ञानी तो खेल भी खेलता है तो भी उलझ जाता है, गंभीर हो जाता है। ज्ञानी कृत्य भी करता है, तो भी उलझता नहीं, जागा रहता है। जानता रहता है कि मेरा स्वभाव तो सिर्फ साक्षी है। ऐसी अहर्निश धुन बजती रहती है कि मैं साक्षी हूं। यह 'मैं साक्षी' का भाव पृष्ठभूमी में खड़ा रहता है। सब होता रहता है। जन्म होता, मृत्यु होती; हार होती, जीत होती, सम्मान-अपमान होता, सब होता रहता है। कभी महल, कभी झोपड़े, सब होता रहता। परन्तु भीतर बैठा ज्ञानी जानता रहता है कि लीला है, खेल है, क्रीडा है।
ये तो ओशो का प्रवचन है।
जवाब देंहटाएंअष्टावक्र गीता भाग १०