शुक्रवार, 6 अक्टूबर 2017

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卐 सत्यराम सा 卐
*क्यों करि उलटा आनिये, पसर गया मन फेरि ।*
*दादू डोरी सहज की, यों आनै घर घेरि ॥*
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साभार ~ oshoganga.blogspot.com

भगवान बुद्ध ने एक प्रश्न और पूछा कि गांठे खोलने के लिए अब क्या करना होगा। ऐसा कह कर उन्होंने रुमाल के दोनों छोरों को पकड़ कर खींचना शुरू कर दिया। गांठे और छोटी हो गई। एक भिक्षु ने कहा कि क्षमा करें, जो आप कर रहे हैं उससे तो रुमाल और बंध जायेगा और गांठे खोलना कठिन हो जायेगा।
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भगवान ने कहा कि ये स्पष्ट है कि कुछ भी करने से गांठे नहीं खुलने वाली, क्योंकि कुछ तो मैं कर रहा हूं। तब क्या करने से गांठे खुलेंगी ? भिक्षु ने उत्तर दिया कि पहले जानना होगा कि गांठे कैसे बंधी हैं, क्योंकि गांठो के स्वरूप को समझने के पश्चात ही जो बाँधने का ढंग था; उसके विपरीत करने से गांठे खुल सकेंगी।
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जब तक ये न ज्ञात हो कि गांठो के बांधे जाने का क्या ढंग था, तब तक कुछ न करना ही उचित होगा। क्योंकि करने से गांठे और ज्यादा उलझ सकती हैं।
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मनुष्य की चेतना पर भी गांठे हैं। स्थिति ये ही है कि चेतना नहीं बदली है, और बदल भी गई है। चेतना स्वभाव से परम् ब्रह्म जैसी ही है, लेकिन चेतना पर गांठे हैं। और ये गांठे जब तक न खुल जाएं, तब तक उस परम स्वभाव को नहीं जाना जा सकता जो ग्रन्थिरहित है।
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ब्रह्म है निर्ग्रन्थ, ग्रन्थियों से रहित; और मनुष्य है ग्रंथियों सहित। इतना ही अंतर है, भेद है। लेकिन गाँठ कैसे लगी और क्या है, इसके स्वरूप को समझ लेना आवश्यक है।

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